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दिसम्बर-२०१५
श्रुतसागर
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ग्रन्थागार कोबा की कंप्यूटरीकृत ग्रन्थसूचनाशोध-प्रणाली में वीरविजजी की गुरुपरम्परा एवं शताधिक कृतियों की माहिती दर्ज है । जिसके तहत तपागच्छीय गणिश्री शुभविजयजी के शिष्य के रूप में पं. श्री वीरविजयजी का नामोल्लेख मिलता है। इनका समय वि.सं. १९वीं शताब्दी है । इन्होंने अपनी कृतियों में अपने गुरु को स्मरण करते हुए शुभवीरविजय के रूप में स्वकीय नामोल्लेख किया है व इनके दादागुरु गणिश्री जसविजयजी थे।
प्रत परिचय : हमने यहाँ आदर्श प्रत के रूप में प्रतसंख्या ८१३७५ को आधार बनाया है जो वि.सं. १९४१ पोष माह, शुक्लपक्ष, नवमी तिथि, भृगुवार (शुक्रवार) के दिन लिपिबद्ध की गई है। एक पत्र में दोनों ओर लिखी हुई इस प्रति की लिपि प्राचीन देवनागरी है। अक्षर सुवाच्य हैं व प्रत्येक पंक्ति में लगभग ४० से ४५ अक्षर निबद्ध हैं । प्रतिलेखन- पुष्पिका, गाथा-संख्याओं की पार्श्वरेखाएँ व प्रथम-मंगल-सूचक-चिह्न लाल स्याही से लिखे हुए हैं । इस प्रत का परिमाण २४.५०X११.५० है ।
॥ गुरुविहार गहुंली ॥
आज रहो मनमोहना, तुमने कहुं हुं वारो वार रे । कठीण
कां करो, तमे जीवन जगत आधार रे ॥ १ ॥
सुगूण सनेहा साधुजी, तुमसुं अम धरम सनेह रे । रंग पतंग तणी परें, एम छटकि न दीजे छेह रे ॥२॥ चालवुं चालवं सुं करो, तुम आगल एहि ज काम रे । मानो मानो पाये पडुं, नित राखो मारि माम रे ॥३॥
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संघ आग्र् घणुं करें, श्रीगुरुजी करें विहार रे । अति ताणु टुटे सही, लोकमां एसी वांरे ॥४॥ वलतु मुनीवर इम भणे, तुमे सांभलो श्रावक विवेक रे । श्रीवीरनी आणां छे एहवी, साधुने नवकल्पी विहार रे ॥५॥ धर्मलाभ कही पांगर्याौं', कोइसुं न आणी प्रीत रे ।
फरी पाछु जोवे नही, एहवी रुडि साधुनी रीत रे ॥६॥ १. कठिन, २. हृदय, ३. मनुहार, ४. आग्रह, ५. वाणी, ६. आगे बढना.
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आज रहो....
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