Book Title: Shastro ke Arth Samazne ki Paddhati Author(s): Publisher: ZZZ Unknown View full book textPage 8
________________ आगे कहा है-"करणानुयोग में जो कथन हैं, वे कितने ही तो छमस्थ के प्रत्यक्ष अनुमानादिगोचर होते हैं तथा जो न हों उन्हें आज्ञा प्रमाण द्वारा मानना ।" पत्र नं. २७७ में "करणानुयोग में तो यथार्थ पदार्थ बतलाने का मुख्य प्रयोजन है, आचरण कराने की मुख्यता नहीं है।........जैसे आप कर्मों के उपशमादि करना चाहें तो कैसे होंगे ? आप तो तत्वादिक का निश्चय करने का उद्यम करे, उससे स्वयमेव ही उपशमादि सम्यक्त्व होते हैं" पन नं. २६० में बताया है कि "जीव कर्मादिक के नाना प्रकार से भेद जाने, उसमें रागादिक करने का प्रयोजन नहीं है, इसलिये रागादिक बढ़ते नहीं हैं, वीतराग होने का प्रयोजन जहां तहां प्रगट होता है ।" इस प्रकार इस पद्धति को जानकर तथा इस अनुयोग में व्यवहारनय की प्रधानता से कथन है, ऐसा समझकर अभ्यास करना चाहिये । यहां इतना विशेष समझना चाहिये कि इनमें, कपाय की मंदतारूप शुभभाव को धर्म की संज्ञा दी है, यथार्थ में तो निःकपाय भाव अर्थात् संवर निर्जरारूप भाव ही धर्म है, वह अपेक्षा यहां नहीं ली है। चरणानुयोग के कथन की पद्धति चरणानुयोग के सम्बन्ध में पत्र नं. २७० में कहा है "जो जीव हित अहित को नहीं जानते, हिंसादिक पापकार्यों में तत्पर रहते हैं, उन्हें जिस प्रकार पाप कार्यों को छोड़कर धर्म कार्यों में लगे, उस प्रकार उपदेश दिया है।" आगे कहा है कि-"जो जीव तत्वज्ञानी होकर चरणानुयोग का अभ्यास करते हैं, उन्हें यह सर्व आचरणPage Navigation
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