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नय स्वद्रव्य - परद्रव्य को व उनके भावों को व कारण कार्यादिक को किसी को किसी में मिलाकर निरूपण करता है । सो ऐसे ही श्रद्धा से मिथ्यात्व है, इसलिये उसका त्याग करना तथा निश्चय नय उन्हीं को यथावत् निरूपण करता है, किसी को किसी में नहीं मिलाता है, सो ऐसे ही श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है. इसलिये उसका श्रद्धान करना ।
"यहां प्रश्न है कि यदि ऐसा है तो जिनमार्ग में दोनों नयों का ग्रहण करना कहा है, सो कैसे ?"
समाधान- जिनमार्ग में कहीं तो निश्चयनय की मुख्यता लिये व्याख्यान है उसे तो "सत्यार्थ ऐसे ही है" - ऐसा जानना तथा कहीं व्यवहारनय की मुख्यता लिये व्याख्यान है, उसे "ऐसे है नहीं, निमित्तादि की अपेक्षा उपचार किया है" ऐसा जानना । इस प्रकार जानने का नाम ही दोनों नयों का ग्रहण है तथा दोनों नयों के व्याख्यान को समान सत्यार्थ जानकर ऐसे भी हैं, ऐसे भी हैं - इस ' प्रकार भ्रमरूप प्रवर्तन से तो दोनों नयों का ग्रहण करना नहीं कहा है ।"
निश्चय को अंगीकार कराने के लिए व्यवहार से उपदेश होता है
पत्र नं० २५२ में कहा है कि "इस निश्चय को अंगीकार कराने के लिए व्यवहार द्वारा उपदेश देते हैं परन्तु व्यवहारनय है सो अंगीकार करने योग्य नहीं है ।" ( समयसार गाथा नं० ८ की टीका में से ) इसी पत्र में आगे कहते हैं " तथा निश्चय से वीतराग भाव मोक्ष मार्ग है" उसे जो नहीं पहिचानते उनको ऐसे ही कहते रहें तो
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