Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 8 Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla Publisher: Divya Darshan Trust View full book textPage 2
________________ 5 प्रास्ताविक संवेदन 5 दार्शनिक चर्चाएँ आर्यावर्त के मनीषीयों की एक अद्भुत देन है। इन चर्चाओं को पढ़ने से पता लगता है कि हमारे पूर्वी किसी एक का निर्णय करने के लिये जब अपनी प्रतिभा के चक्रों को गतिमान करते थे तब कितनी महराई में उतर जाते थे और कितना मधुर तत्त्वजल बाहर लाते थे जिसके रसास्वाद से आज भी हम दिव्य तृप्ति का अनुभव कर सकते हैं। 'शास्त्रवार्त्ता समुच्चय' यह एक ऐसे ही बड़े मनीषी को अमर कृति है जिसमें चार्वाक सहित सभी दर्शनों के शास्त्र सागर का आलोकन करके लाचार्य श्री हरिभद्रसूरि महाराज ने घवल उज्ज्वल अमृत ही भर दिया है । उपा० श्रीमद् यशोविजय महाराज ने नवीनतर्कालंकृत स्यादुवादकल्पलता व्याख्या बना कर इस ग्रन्थरत्न की श्रीवृद्धि में चार चांद लगा दिये हैं । इस विभाग में शास्त्रवार्त्ता का पूरा आठवों स्तबक उसकी व्याख्या और उसके हिन्दी विवेचन के साथ प्रस्तुत है। मूल ग्रन्थ अति संक्षिप्त है । सिर्फ १० ही कारिका में मूल ग्रन्थकार ने समूचे वेदान्तमत का प्रतिपादन, उस मत की निष्पक्ष समालोचना और वेदान्त संप्रदाय के मूल संस्थापक का इस मत की स्थापना में गर्भित शुभाशय को अनावृत कर दिया है । मूल कारिकाओं के अन्तर्निहित आशय को उद्भासित करने के लिये मनिषीरत्न यशोविजय महाराज ने जो कलम चलायी है इससे लगता है- वेदान्त समुद्र के लिये वे अगस्त्य ऋषि बन गये होंगे । वेदान्तमत - पूर्वपक्षवार्ता के निरूपण में उन्होंने अपने काल तक प्रचलित वेदान्त के किसी भी मत को अछूता नहीं रखा है। कई मत तो ऐसे भी उल्लिखित है जिसका अन्यत्र पता लगाना भी कठिन है, यही कारण है - इस के हिन्दी विवेचन के समय पर काफी कठिनाईयों का सामना करना पड़ा । प्रथम कारिका की व्याख्या के प्रारम्भिक अंश में अद्वैतवाद का उपस्थापन किया गया है उसके बाद ब्रह्माद्वैत, प्रपच को अनिर्वचनीयता ब्रह्म की सजातीय विजातीय भेदशुन्यता, अविद्या या अज्ञान की सिद्धि, मूलाज्ञान और तुलाज्ञान, पारमार्थिकस व व्यावहारिकसत्त्व और प्रतिभासिक्सत्त्व प्रतीतिजनक तीन शक्तियाँ, जोब-ईश्वरादि प्रपख, जोव के विषय में प्रतिबिम्बवाद और आभासवाद, जीवों की अनेकता, हिरण्यगर्भादि की उपासना, सायुज्य मुक्ति के विभिन्न मत, एकजीववाद, अन्तःकरण की वृत्ति, ईश्वर में मायावृत्ति, पंचीकरण सिद्धान्त इत्यादि विषयों पर विस्तार किया गया है । द्वितीय कारिका में केशादि की संकीर्णता से आकाश में अनुभूयमान भेदप्रतीति के दृष्टान्त से तृतीय कारिका में ब्रह्म सम्बन्धी भेद प्रतीति का उपपादन किया है। व्याख्याकार ने यहाँ अविद्यानिर्वत्त वेदान्तवाक्य अध्ययन विधि की नित्यता के उपर विस्तृत परामर्श प्रदर्शित किया है । उसके बाद अन्तःकरण शुद्धि यज्ञदानादि की कर्त्तव्यता नित्यानित्यविवेक वैराग्य- शमदमादि 2Page Navigation
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