Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 15
________________ उसी समय विद्वान् विप्र श्री हरिभद्र उस ओर से कहीं जा रहे थे। उन्होंने यह गाथा सुनी किन्तु उसका साथ उनकी समझ में न भाया । इस मनवबोध से पीड़ित हो कर वे उस स्थान पर गये जहाँ गाथा की घरतन्त्री झकृत हो रही थी। वहा विधमान साध्वी की प्रसन्न और प्रशान्त मुद्रा तथा पवित्र जीवनचर्या को देख कर वे चकित और चमत्कृत हो उठे । उन्होंने बडे निरभिमान भाव से प्रवर्तिनी महत्तरा साची से उसका अर्थ बताने को प्रार्थना की। साध्वी ने हरिभद का विनय और बुद्धिवैभव देख कर कहा कि इस गाथा का अर्थ समझने के लिये हमारे गुरुदेव जैनाचार्य श्री जिनभट्टसरिजी महाराम से आप सम्पर्क स्थापित करें । यह सुन कर ब्राह्मण हरिभद्र अपने घर गये किन्तु अनवरत यह चिन्तन करते रहें कि महसरा व साथी गण का जीवन कितना स्वच्छ, शान्त और सुन्दर है । उनका विनय, उनका पवित्र जीवन क्रम उनके धर्म की महत्ता और श्रेष्ठता को स्पष्ट रूप से इनित करता है। उसे मानना और सममना बड़ा लाभदायक हो सकता है। इस चिन्तन तथा गाथा के अर्थ को प्रबल विज्ञासा से प्रेरित होकर वे दूसरे दिन साध्वी द्वारा बताये गये जैनाचार्य की सेवा में उपस्थित हुए । आचार्यश्री बड़े व्यवहारकुशल और उच्च कोटि के शास्त्रवेत्ता थे। एक ही दृष्टि में उन्हें हरिभद्र की भव्यता और योग्यता का परिज्ञान हो गया । हरिभद्र ने बड़ो नम्रता से उक गाथा के अर्थ को बताने को प्रार्थना की । आचार्यश्री ने कहा कि इस गाथा का अर्थ समझने के लिये पापको सम्बद्ध परम्परा का अमिक अध्ययन करना होगा तथा पापबन्धनों से मुक्त हो चारित्र्यपूर्ण जीवन स्वीकार करना होगा | इसकी दीक्षा विना गाथा का मर्मावबोध नहीं हो सकता । हरिभद्र अपनी मानसिक प्रतिज्ञा पालन करने के लिये पहले से ही तय्यार थे । उन्हो ने तत्काल कह दिया. कि आप मुझे अपनी दीक्षा देकर गाथा का अर्थ बोध देने को कृपा करें । आचार्य जिनभट्टसूरि ने उसी समय हरभद्र को जैन दीक्षा दो तथा संयम का व्रत प्रदान किया, साथ ही गाथा का अर्थ बता कर उनको जिज्ञासा पूर्ण की । दीक्षित होकर श्रीहरिभद्र मुनि ने जैनागम-शास्त्र का अध्ययन प्रारम्भ किया । जैसे जैसे अदृष्ट-कर्म के गम्भीर रहस्य, जोव के भेद प्रभेद, उनकी गति आगति, १४ गुणस्थानक की प्रक्रिया, अनेकान्तवाद, नय प्रमाण सप्तभङ्गो आदि विषय का-जो मन्य सम्प्रदाय और शास्त्रो में उपलभ्य नहीं है-- उन्हें ज्ञान मिलता गया, वैसे वैसे उनके भात्मामें वैराग्य और संवेग की तीव्र भावना भी प्रबल होती गयी। साथ ही उन्हें इस बात का भी स्पष्ट माभास होने लगा कि मैंनेतर शास्त्र और सिद्धान्तों में कितनी अपूर्णता और अपरिपक्वता है, कितने ऐसे अंश हैं जो तर्क और प्रमाण की कसौटी पर खरे नहीं उतर सकते । जैनशास्त्रों और सिमान्तो में जो तार्किकता प्रामाणिकता और निर्दोषता एवं श्रेष्ठता है उनका भी उन्हें अत्यन्त स्पष्ट

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