Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 14
________________ भूमिका आज से २५०० वर्ष पूर्व ३० साल तक पृथ्वी पर मोक्षमार्ग तथा तत्त्वज्ञान को दिव्यवाणी की पावनधारा प्रवाहित कर वीतराग, देवाधिदेव चरमतीर्थकर, सर्वज्ञ श्रमण भगवान् श्री महावीरस्वामी स्वयं मोक्षपद पर आरूढ हुये । मोझारूढ होने के तीस साल पूर्व भगवान ने चतुर्विध जैनसंघ की स्थापना की थी। श्री सुधर्मास्वामी ने उसे अपना इस्तानलम्ब देकर दृढ़ बनाया । श्री सुधर्मास्वामी की पाटपरम्परा में कई ऐसे महर्षि हुये जिन्होंने भगवान महावीर के सदुपदेशों का यथावत् पालन करते हुये जिज्ञासु मुमुक्षुजीवों को तत्वज्ञान का उपदेश देकर भगवान द्वारा प्रदर्शित मोक्षमार्ग पर यात्रा करने की परम्परा को लम्बे समय तक अखण्ड एवं अविच्छिन्नरूप में गतिशील तथा सप्राण बनाये रखा । इसी पुनीत परम्परा में एक बहुश्रत चतुरनप्रतिभासम्पन्न महषि प्रादुर्भूत हुये, जिन का नाम था आचार्य भगवान श्रीहरिभद्रसरि । १. पू. आ. श्री हरिभद्रसूरि महाराज का जीवनवृत्त इतिहास इस तथ्य का साक्षी है कि जैन तथा जैनेतर दोनों ही परम्परा में उच्चकोटि के उद्भट विद्वान् बराबर होते रहें और उनके वैचारिक संघर्ष से तस्वविधा का वाङ्मय सदैव परिष्कृत और विकसित होता रहा। जिन महापुरुष का संस्मरण भगलो पङ्क्तियों में रखा जाने वाला है वे प्रारम्भ में जेनेतर परम्परा से ही सम्बद्ध थे। यह प्रामाणिक अनुसन्धान पर भाधारित है कि पुरोहित हरिभद्र अपने समय के जनेतर विद्वानों में मप्राण्य बामण पण्डित थे। वे चित्रकूट (मेवार) के राजपण्डित थे | उनकी कीर्ति दिगन्त तक फैली हुयी थी । छहो दर्शन शास्त्रों का तलस्पर्शी पाण्डित्य और वेदविद्याओं में परम निष्णात होने के कारण वे वादीन्द्र और विद्वत्-शिरोमणि कहे जाते थे । अपनी असाधारण प्रतिभा पर उनका बड़ा विश्वास था। उनका यह आत्मविश्वास था कि जगत् में ऐसी कोई विद्या नहीं है जिसे थे न जानते हो अथवा जिसे समझने में उन्हें कोई कठिनायी हो । उनको यह मनोगत प्रतिज्ञा भी कि यदि कभी कोई ऐसा शास्त्र उनके सम्मुख उपस्थित होगा जिसे वे न समझ सकेंगे तो उसे समझने के लिये उन्हें किसी का भी शिष्य बनने तक में कोई संकोच न होगा । संयोगवश एक दिन ऐसा ही उपस्थित हुमा जिसने उनके सारे जीवन को ही परिवर्तित कर दिया । घटना यह हुई कि एक दिन याकिनी महत्तरा (जैन) प्लाचीगण को एक साध्वी स्वाध्याय के समय अपने मधुर कण्ट से एक गाथा बोल रही थी--जो इस प्रकार थी, 'चक्रीदुगं हरिपणगं पणगं चक्रोण केतवो चक्की, केसव चक्की केसब दुचक्की केतवो चक्कि ।।'

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