Book Title: Shastrasara Samucchay
Author(s): Maghnandyacharya, Veshbhushan Maharaj
Publisher: Jain Delhi

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Page 12
________________ द्वादशांगता श्री भद्रबाहु श्राचार्य का शिष्य लिखते है, इस दृष्टि से उनका समय श्री पुष्पदन्त, भूतबली से भी पहले का बैठता है किन्तु चारों भ्राचार्य विक्रम की दूसरी शताब्दी के माने जाते हैं, प्रतः श्री कुन्दकुन्दाचार्य का समय विचारणीय है । इस प्रकार भगवान वीरप्रभु का उपदिष्ट सैद्धान्तिक ज्ञान प्रविच्छिन गुरु-परम्परा से श्री घरसेन, गुणधर, पुष्पदन्त भूतबली, कुन्दकुन्द आचार्य को प्राप्त हुआ और उन्होंने ( धरसेन प्राचार्य के सिवाय) आगम-रचना प्रारम्भ की । श्वेताम्बरीय आगम रचना विक्रम सं० ५१० में बल्लीपुर में श्री देवगिरिण क्षमाश्रम के नेतृत्व में हुई । श्री गणधर, पुष्पदन्त भूतबली, कुन्दकुन्द प्राचार्य के अनन्तर ग्रन्थ निर्माण की पद्धति चल पड़ी। तदनुसार श्री उमास्वामी, समन्तभद्र, पूज्यपाद यतिवृषभ, अकलंकदेव, वोरसेन, जिनसेन श्रादि श्राचार्यों ने गुरु परम्परा से प्राप्त ज्ञान के अनुसार विभिन्न विषयों पर विभिन्न ग्रन्थों को रचना की । उन ग्रन्थों में प्रायः किसी एक ही अनुयोग का विषय-विवरण रक्खा गया है । कर्णाटक कविचरित के अनुसार संवत् १३१७ में श्री कुमुदचन्द्र प्राचार्य के शिष्य श्री माघनन्दी प्राचार्य हुए इन्होंने चारों अनुयोगों को सूत्र- निबद्ध करके शास्त्रसार-समुच्चय ग्रन्थ की रचना की है। इसमें संक्षेप से चारों अनुयोगों का विषय आ गया है। इस ग्रन्थ की एक टीका माणिक्यनन्दि मुनि ने की है संभवत: वह संस्कृत भाषा में होगी। कनड़ी टीका एक अन्य विद्वान ने बनाई है । ग्रन्थ के अन्त में जो प्रशस्ति के पद्य हैं उनसे उस विद्वान का नाम 'चन्द्रको ति' प्रतीत होता है श्रीर संभवतः वह गृहविरत महाव्रती मुनि थे, उन्हों ने यह टीका निल्लिकार (कर्णाटक प्रान्त) नगर के भगवान अनन्तनाथ के मंदिर में श्रश्विन सुदी १० ( विजया दशमी) को लिखी है । यह टीका अच्छे परिश्रम के साथ लिखी गई है, अच्छा उपयोगी पयनीय विषय इसमें मंकलित किया गया है। किस संवत् में यह लिखी गई, यह छत नहीं हो सका । यह टीका कर्णाटक लिपि में प्रकाशित हो चुकी है। प्रकाशक को एक प्रति के सिवाय अन्य कोई लिखित प्रति उपलब्ध न हो सकी, जिससे कि वह दोनों प्रतियों का मिलान करके संशोधन कर लेते, इस कठिनाई के कारण टीका में निबद्ध अनेक श्लोक और गाथाऐं अशुद्ध छप गई हैं। अस्तु । इसी ठोका की उपयोगिता का अनुभव करके सततज्ञानोपयोगी विद्यालङ्कार आचार्य देशभूषण जी महाराज ने इस वर्ष चातुर्मास में इस कनड़ी का का हिन्दी अनुवाद किया है। एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद

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