Book Title: Savay Pannatti
Author(s): Haribhadrasuri, Balchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 2
________________ सावयपन्नती (श्रावकप्रज्ञप्ति) आचार्य गृद्धपिच्छ या उमास्वामी के 'तत्त्वार्थसूत्र' का आधार लेकर आठवीं शताब्दी के आचार्य हरिभद्रसूरि ने ४०१ गाथाओं में प्राकृत भाषा में निबद्ध इस 'सावयपन्नती' ( श्रावकप्रज्ञप्ति) श्रावकाचार ग्रन्थ की रचना की । श्रावकाचार का अर्थ है- सम्यग्दृष्टि व्यक्ति का साधु-सन्त के निकट शिष्ट जनों के योग्य आचरण (समाचारी) को सुनना । इस बात में कहीं कोई मतभेद नहीं है कि बिना सम्यग्दर्शन के कोई श्रावक नहीं हो सकता है। सम्यग्दर्शन श्रावकधर्म का मूल है। समाचारी सुनने से व्यक्ति को जिन अपूर्व गुणों की प्राप्ति होती है उनका उल्लेख भी ग्रन्थकार ने किया है। श्रावकधर्म बारह प्रकार का कहा गया है। दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराएँ यह मानती हैं कि व्रतों के पालन करने पर ही सम्यग्दर्शन-सम्पन्न व्यक्ति श्रावक कहलाता है। बारह व्रतों में पाँच अणुव्रत मुख्य हैं। वे हैं - अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह | श्रावकधर्म के अन्तर्गत मूल और उत्तर गुणों के विभाग में अन्तर है। आठ प्रकार के मूलगुण (५ अणुव्रतों का पालन या ५ उदुम्बरादि फलों का त्याग और मद्य, मांस, मधु का त्याग) में मद्य, मांस, मधु का सेवन नहीं करना जहाँ प्रधान है, वहीं अहिंसा - अणुव्रत की रक्षा के लिए कन्दमूल, वनस्पति आदि के सेवन का भी निषेध किया गया है । यह सब इसलिए कहा गया है क्योंकि श्रावक बनने पर अहिंसा धर्म का पालन जीवन में अनिवार्य हो जाता है। जैन धर्म में आचार-सम्बन्धी विभिन्न परम्पराओं के अध्ययन के लिए इस ग्रन्थ की विशेष उपयोगिता मानी गयी है। विवेचन-पद्धति एवं शैली में भी इसकी नवीनता द्रष्टव्य है ।

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