Book Title: Satya Asatya Ke Rahasya Author(s): Dada Bhagwan Publisher: Mahavideh Foundation View full book textPage 8
________________ सत्य-असत्य के रहस्य प्रश्नकर्ता : वह व्यवहार सत्य अनेकांगी है न?! दादाश्री : वह तो अनेकांगी ही है सारा। पर वह विनाशी है। यह व्यवहार सत्य, रिलेटिव सत्य, मात्र विनाशी है। प्रश्नकर्ता : आप सापेक्ष सत्य कहना चाहते हैं न? दादाश्री : हाँ, यह सापेक्ष सत्य है। इसलिए यह जो जगत् का सत्य है न, वह तो सापेक्ष सत्य है। अपने देश में जो नोट चलते हैं न, वे नोट दूसरे देश में नहीं चलते। किसी जगह पर सत्य माना जाता हो, वह दूसरे देश में जाए तब वह सत्य नहीं माना जाता। इसलिए कुछ भी ठिकाना ही नहीं है। सत्य मतलब तो आज तक की समझ का सार! आपका सत्य अलग है, उनका सत्य अलग है, किसी और का सत्य अलग है और फिर कॉमन सत्य अलग है। प्रश्नकर्ता : जो सत्य है उसके नज़दीक हम पहुँच सकते हैं, पर सत्य को प्राप्त नहीं कर सकते हैं, ऐसा कहा जाता है। दादाश्री : हाँ, वह प्राप्त नहीं कर सकते। यह जो सत्य है न, वे सब खुद के व्यू पोइन्ट के सत्य हैं। अब व्यू पोइन्ट के सत्य में से बहुत विचारकों ने कॉमन सत्य ढूंढ निकाला है कि कॉमन सत्य क्या होना चाहिए! वह विचारकों की खोज है। वही कॉमन सत्य है, उसे कानून के रूप में रख दिया। बाक़ी, वह भी सत्य नहीं है। वह सब व्यवहार सत्य है। इसलिए एक अंश से लेकर तीन सौ साठ अंश तक के सारे सत्य जो हैं. वे तरहतरह के सत्य होते हैं और वे मतभेदवाले होते हैं। इसलिए कोई उसकी थाह नहीं पा सकता। जो रियल सत्य है, उसमें परिवर्तन नहीं होता। वहाँ सभी एक मत ही होते हैं। रियल सत्य एक मतवाला होता है। रिलेटिव सत्य तरह-तरह के मतोंवाला होता है। वह वास्तव में सत्य नहीं है। निश्चय मतलब पूर्ण सत्य और व्यवहार मतलब कुछ हद तक का सत्य है। सत्य-असत्य के रहस्य नहीं असत् भगवान के यहाँ इसलिए सत्य और असत्य, वे दोनों 'वस्तु' ही नहीं हैं। वे तो सामाजिक खोज है। इसलिए यह सब सामाजिक है, बुद्धिवाद है। किसी समाज में फिर से विवाह करना, वह गुनाह है और फ़ॉरेनवाले एक घंटे में फिर से विवाह कर आते हैं. वे उसे कानून के अनुसार है, ऐसा मानते हैं। इसलिए ये अलग-अलग हैं, वह सापेक्षित वस्तु है। पर वह सत्य कुछ नियमों के अंदर छुपा हुआ है। प्रश्नकर्ता : सत्य और असत्य जो हैं, उसमें एडजस्टमेन्ट किस तरह करना चाहिए? दादाश्री : सत्य और असत्य वे भ्रांतिजन्य चीजें हैं। भगवान के वहाँ एक ही हैं। और यह तो लोगों ने दोनों को अलग कर दिया है। आपके लिए माँसाहार करना हिंसा है और मुसलमानों के लिए माँसाहार करना अहिंसा है। इसलिए यह सब 'सब्जेक्टिव' (सापेक्ष) है और भगवान के वहाँ एक ही वस्तु है, एक पुद्गल ही है। और जैसा भगवान के वहाँ है वैसा मुझे बरतता है और वह मैं आपको सिखाता हूँ। पर ये तो लोग सब इसमें पड़े हैं, सब्जेक्ट में पड़े हैं, इसलिए यह सारा ज्ञान चला गया। बाक़ी, भगवान के वहाँ ऐसा सत्य और असत्य है ही नहीं। यह तो विनाशी है सारा। यह तो एक ही वस्तु के दो भाग कर दिए हैं हम लोगों ने। इसलिए ये सब सत्य तो असत्य है। यह सत्य तो सामाजिक स्वभाव है। हाँ, सामाजिक रचना है। समाज में आमने-सामने दुःख नहीं हो, उसके लिए यह रचना की गई है। प्रश्नकर्ता : वह भी रिलेटिव सत्य ही है न? दादाश्री : हाँ, है रिलेटिव सत्य! पर उसमें सामाजिक रचना की है कि, 'भाई, यह सत्य नहीं माना जाएगा।' आपने लिया हो इसलिए आप ऐसा कहते हो कि, 'हाँ, मैंने लिया है।' और 'नहीं लिया ऐसा बोलो तो?! सत्य मतलब क्या? कि जैसा हुआ हो वैसा कहो मतलब समाज ने रचनाPage Navigation
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