Book Title: Satya Asatya Ke Rahasya
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 22
________________ सत्य-असत्य के रहस्य सत्य-असत्य के रहस्य गलत होती है। और यह तो हम मानते हैं कि मैं हितकारी कह रहा हूँ। फिर भी ये नहीं मानते हैं। अरे, हितकारी कहाँ से लाया तू? हितकारी एक वाक्य भी कहाँ से लाया तू? हितकारी बात तो कैसी होती है? सामनेवाले व्यक्ति को मारें तो भी वह सुने। हितकारी बात करनेवाले के पास तो, वह सामनेवाले व्यक्ति को मारे तो भी वह सुनेगा। सुनेगा या नहीं सुनेगा? क्योंकि खुद समझ जाता है कि मेरे हित के लिए कह रहे हैं। इसलिए अपनी बात जो सामनेवाले को प्रिय नहीं लगती, फिर प्रिय लगे और हितकारी नहीं हो, तो भी बेकार है। मित बिना का सत्य, कुरूप अब इतने से ही नहीं हो जाता फिर । ऐसी तीनों चीजें एक व्यक्ति ने की, सत्य कहा, प्रिय लगे वैसा बोले, हितकारी लगे वैसा बोले. पर हम कहें, 'अब बहुत हो गया, आपकी बात सारी समझ गया। आपने मुझे सलाह दी, और वह मुझे समझ में आ गई, अब मैं जा रहा हूँ।' तो वह हमें क्या कहेगा? 'ना, नहीं जाना है। खड़ा रह। मेरी बात पूरी सुन। तू सुन तो सही।' वह फिर असत्य हो गया। इसलिए मित कहा है भगवान ने वहाँ पर। मित मतलब सही परिमाण में होना चाहिए। थोड़े ही शब्दों में नहीं होता तो सत्य नहीं माना जाता। क्योंकि ज़रूरत से ज्यादा बोलें तो सामनेवाला व्यक्ति ऊब जाता है, वह सत्य नहीं माना जाता। उस सत्य से तो रेडियो अच्छा है कि हमें जब स्विच बंद करना हो तो कर सकते हैं! यह रेडियो बंद करना हो तो होता है, पर यह जीवित रेडियो बंद नहीं होता। इसलिए मित नहीं हो तो वह भी गुनाह है। इसलिए वह भी झूठ हुआ। जरूरत से ज्यादा, एक्सेस बोलना हो गया, वह भी झूठ हो गया। क्योंकि अहंकार है उसके पीछे। इसलिए सत्य कह रहा हो तो भी वह बुरा दिखता है, हितकारी बोले तो भी वह बरा दिखता है। क्योंकि मित नहीं है। मतलब नोर्मेलिटी होनी चाहिए, तब वह सत्य माना जाएगा। मित मतलब सामनेवाले को अच्छी लगे उतनी ही वाणी, जरूरत हो उतना ही बोले, अधिक नहीं बोले, सामनेवाले को जरूरत से ज्यादा लग रहा हो तो बंद कर दे। और अपने लोग तो पकड़ने को घूमते हैं। अरे, इसके बदले तो रेडियो अच्छा, वे पकड़ते तो नहीं हैं। ये तो उसका हाथ पकड़कर बोलते ही रहते हैं। इस तरह हाथ पकडे, वैसे देखे हैं आपने? 'अरे आप सुनो, सुनो, मेरी बात सुनो!' देखो कैसे होते हैं न!! मैंने देखे हैं ऐसे। आत्मार्थ झूठ, वही सच प्रश्नकर्ता : परमार्थ के काम के लिए थोड़ा झूठ बोले उसका दोष लगता है? दादाश्री : परमार्थ मतलब आत्मा के लिए जो कुछ भी किया जाता है, उसका कुछ भी दोष नहीं लगता और देह के लिए जो कुछ भी किया जाता है, गलत किया जाए तो दोष लगता है और अच्छा किया जाए तो गुण लगता है। आत्मा के लिए जो कुछ भी किया जाए, उसमें हर्ज नहीं है। आत्मा के लिए आप परमार्थ कहते हो न!? हाँ, आत्महेतु होता है न, उसके जो-जो कार्य होते हैं उसमें कोई दोष नहीं है। सामनेवाले को अपने निमित्त से दु:ख हो तो वह दोष लगता है। कषाय के बदले असत्य उत्तम है इसलिए हमने कहा है कि आत्मा प्राप्त करने के लिए घर से असत्य बोलकर आओगे तो वह सत्य है। पत्नी कहे, 'वहाँ नहीं जाना है दादा के पास।' पर आत्मा प्राप्त करने का आपका हेतु है, तो असत्य बोलकर आओगे तो भी जिम्मेदारी मेरे सिर पर है। कषाय कम करने के लिए घर जाएँ और सत्य बोलने से घर में कषाय बढ जाएँ ऐसा हो तो असत्य बोलकर भी कषाय बंद कर देना अच्छा। वहाँ फिर सत्य को एक तरफ रख देना चाहिए? 'यह' सत्य वहाँ पर असत्य ही है!! 'झूठ' से भी कषाय रोको जहाँ सत्य का कुछ भी आग्रह है तो वह असत्य हो गया! इसलिए हम भी झूठ बोलते हैं न! हाँ, क्योंकि उस बेचारे को कोई आदमी परेशान कर रहा हो और इन लोगों ने तो पूँछ पकड़ी हुई है। गधे की पूँछ पकड़ी वह पकड़ी! अरे, छोड़ दे न! यह लातें मारे तो छोड़ देना चाहिए। लात

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