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सत्य-असत्य के रहस्य छोड़ देते हैं। और सिर्फ संसार में नहीं, ज्ञान में भी वैसा ही। खुद के ज्ञान की भी पकड़ नहीं पकड़ते हम। ये कहाँ माथाफोड़ करे?! सारी रात माथाफोड़ी करें, पर वह तो दीवार जैसा है। जो खुद की पकड़ नहीं छोड़ता तो उसके बदले तो हम छोड़ दें, वह अच्छा। नहीं तो वह जो पकड़ने का अहंकार है, वह जाए नहीं, तब तक छूटा नहीं जाएगा, हमारी मुक्ति नहीं होगी।
'यह मेरा सच है' वह एक प्रकार का अहंकार है, उसे भी निकालना तो पड़ेगा न?
हारा, वह जीता
सत्य-असत्य के रहस्य भी धीरे-धीरे रखते हैं। कोई ज़िद पर अड़ गया हो न, तो धीरे-धीरे रखते हैं। नहीं तो गिर जाए बेचारा तो क्या होगा?!
सत्य का आग्रह, कब तक योग्य? प्रश्नकर्ता : तो सत्य का आग्रह रखना चाहिए या नहीं?
दादाश्री: सत्य का आग्रह रखना चाहिए, पर कितना? कि वह दुराग्रह में नहीं जाना चाहिए। क्योंकि वहाँ' पर तो कुछ सत्य है ही नहीं। सभी सापेक्ष है।
पकड़, खुद के ज्ञान की। किसीका गलत तो है ही नहीं जगत् में। सारा विनाशी सत्य है, तो फिर उसमें क्या पकड़ पकड़नी?! फिर भी सामनेवाला उसकी पकड़ पकडे तो हम छोड़ दें। हमें कह छूटना है इतना ही, हमें अपनी भावना प्रदर्शित करनी चाहिए कि 'भाई, ऐसा है!' पर उसकी पकड़ नहीं पकड़ना। खुद के ज्ञान की जिसे पकड़ नहीं है, वह मुक्त ही है न!
प्रश्नकर्ता : खुद का ज्ञान मतलब कौन-सा ज्ञान?
दादाश्री : खुद के ज्ञान की पकड़ नहीं, उसका अर्थ क्या कि खुद का ज्ञान दूसरों को समझाए उस घड़ी वह कहे, 'नहीं, आपकी बात गलत है।' मतलब वह खुद की बात का आग्रह रखे, उसे पकड़ कहते हैं। एक बार विनती करें कि, 'भाई, फिर से आप बात को समझो तो सही।' तब फिर वह कहेगा, 'नहीं, समझ लिया। आपकी बात ही गलत है। आपको फिर पकड़ छोड़ देनी है। ऐसा कहना चाहते हैं हम। आज कौन-सा वार हुआ?
प्रश्नकर्ता : शुक्रवार।
दादाश्री: हम किसीसे कहें, 'शक्रवार'. तो वह कहे. 'नहीं. शनिवार ।' तो हम कहें, 'वापिस ज़रा आप देखो तो सही।' तब वे कहते हैं, 'नहीं, शनिवार ही हुआ है।' इसलिए हम फिर आग्रह नहीं रखते,
हम मुकाबला करने नहीं आए हैं, अपनी सच्ची बात दिखाने आए हैं। मकाबला करें कि 'तेरा गलत है, हमारा सच्चा है' ऐसा नहीं। 'भाई, तेरी दृष्टि से तेरा सच है' ऐसा करके आगे निकल जाएँ। क्योंकि नहीं तो ज्ञान की विराधना की, ऐसा कहलाएगा। ज्ञान वह कहलाता है कि विराधक भाव खड़ा ही नहीं होना चाहिए। क्योंकि वह उसकी दृष्टि है। उसे हमसे कैसे गलत कहा जाए? पर इसमें जो छोड देते हैं वे वीतराग मार्ग के और जो जीतें वे वीतराग मार्ग के नहीं हैं। भले ही वे जीतें। वैसा हम साफसाफ कहते हैं। हमें कोई आपत्ति नहीं है। हम साफ-साफ बोल सकते हैं। हम तो जगत् से हारकर बैठे हैं। हम सामनेवाले को जिताएँ तो उसे नींद आएगी बेचारे को। मुझे तो नींद वैसे ही आ जाती है, हारकर भी नींद आ जाती है। और वह हारे तो उसे नींद नहीं आएगी, तो मुश्किल मुझे होगी न ! मेरे कारण बेचारे को नींद नहीं आई न?! ऐसी हिंसा हममें नहीं होती! किसी प्रकार की हिंसा हममें नहीं होती है!
कोई व्यक्ति गलत बोले, वह उल्टा बोले उसमें उसका दोष नहीं है। वह कर्म के उदय के आधीन बोलता है। पर आपसे उदयाधीन बोला जाए तो उसके आप जानकार होने चाहिए कि, 'यह गलत बोला गया।' क्योंकि आपके पास पुरुषार्थ है। यह 'ज्ञान' मिलने के बाद आप पुरुष हुए हो। प्रकृति में किसी भी प्रकार का थोड़ा भी हिंसक वर्तन नहीं, हिंसक