Book Title: Satya Asatya Ke Rahasya
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 11
________________ सत्य-असत्य के रहस्य सत्य-असत्य के रहस्य दादाश्री : 'मैं क्या हूँ' वह भान नहीं, परन्तु 'मैं हूँ ही' ऐसा भान हो, तब फिर परम सत्य की प्राप्ति होने की शुरूआत हो गई। यह तो 'मैं हूँ' वह भी भान नहीं है। यह तो 'डॉक्टर साहब मैं मर जाऊँगा' कहते हैं! 'मैं क्या हूँ' वह भान होना, वह तो आगे की बात है, पर 'मैं हैं ही, अस्तित्व है ही मेरा', ऐसा भान हो तो वह परम सत्य की प्राप्ति की शुरूआत हुई। अस्तित्व तो है, अस्तित्व का स्वीकार किया है, पर अभी भान नहीं हुआ। अब खुद को खुद का भान होना वह परम सत्य की प्राप्ति हो गई। 'मैं चंदूभाई हूँ' ऐसी मान्यता है, तब तक परम सत्य प्राप्त ही नहीं हो सकता। 'चंदूभाई तो मेरा नाम है और मैं तो आत्मा हूँ' ऐसी प्राप्ति हो, आत्मा का भान हो तो परम सत्य प्राप्त होता है। 'मैं तो आत्मा' वही सत् अब खरा सत् कौन-सा है? आप आत्मा हो, अविनाशी हो वह खरा सत् है! जिसका विनाश नहीं होता वह खरा सत् है। जो भगवान हैं, वे सत् ही कहलाते हैं। बाक़ी, दुनिया ने सत् देखा ही नहीं है। सत् की तो बात ही कहाँ हो! और यह जो सत्य है वह तो असत्य ही है आखिर में। इस संसार के सभी जो नाम दिए हुए हैं वे सारे ही सत्य हैं, पर विनाशी हैं। अब 'चंदूभाई' वह व्यवहार में सच है, वह सत्य है पर भगवान के वहाँ असत्य है, किसलिए? खुद अनामी है। जब कि ये 'चंदूभाई' वे नामी हैं, इसलिए उनकी अर्थी निकलनेवाली है। पर अनामी की अर्थी नहीं निकलती। नामवाले की अर्थी निकलती है। अनामी की अर्थी निकलती है? इसलिए यह सत्य व्यवहार के लिए ही सत्य है। फिर वह असत्य हो जाता है। 'मैं चंदूभाई हूँ' वह नाम के आधार पर सच है, पर 'आप वास्तव में कौन हो?' उस आधार पर झूठ है। यदि आप वास्तव में कौन हो वह जान जाओ तो आपको लगेगा कि यह झूठ है। और आप 'चंदूभाई' कब तक है? कि जब तक आपको 'ज्ञान' प्राप्त नहीं होता तब तक आप 'चंदूभाई' और 'ज्ञान' हो जाए, तब फिर लगता है कि 'चंदूभाई' भी असत्य है। सत्य, भी कालवर्ती सत्य, वह सापेक्ष है, पर जो सत् है, वह निरपेक्ष है, उसे कोई भी अपेक्षा लागू नहीं होती। प्रश्नकर्ता : सत् और सत्य में दूसरा कोई फर्क होता होगा? दादाश्री : सत्य विनाशी है और सत् अविनाशी है। दोनों स्वभाव से अलग हैं। सत्य, वह जगत् के लिए लागू होता है, व्यवहार को लागू होता है और सत. वह निश्चय को लागू होता है। इसलिए इस व्यवहार को जो सत्य लागू होता है, वह विनाशी है। और सच्चिदानंद का सत् वह अविनाशी है, परमानेन्ट है। बदलता ही नहीं, सनातन है। जब कि सत्य तो बार-बार बदलता रहता है, उसे पलटते देर नहीं लगती। प्रश्नकर्ता : इसलिए सत्य आपकी दृष्टि में सनातन नहीं है? दादाश्री : सत्य, वह सनातन वस्तु नहीं है, सत् सनातन है। यह सत्य तो काल के आधीन बदलता जाता है। प्रश्नकर्ता : वह किस तरह से? जरा समझाइए। दादाश्री : काल के अनुसार सत्य बदलता है। भगवान महावीर के काल में यदि कभी मिलावट की होती न, तो लोग मार-मारकर उसे जला देते। और अभी? यह जमाना ऐसा आया है न, तो सब तरफ मिलावटवाला ही मिलता है न?! इसलिए यह सब सत्य बदलता रहनेवाला है। जिसे पहले के लोग क्रीमती वस्तु मानते थे, उसे हम बेकार कहकर निकाल देते हैं। पहले के लोग जिसे सत्य मानते थे उसे असत्य कहकर निकालते हैं। इसलिए हरएक काल में सत्य बदलता ही रहता है। इसलिए वह सत्य कालवर्ती है. सापेक्ष सत्य है और फिर विनाशी है। जब कि सत् मतलब अविनाशी। सत् का स्वभाव प्रश्नकर्ता : सत्-चित्-आनंद जो शब्द है उसमें सत् है वह सत्य

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