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सत्य-असत्य के रहस्य
सत्य-असत्य के रहस्य है या सत्? और यह सत्य अलग है?
दादाश्री : यह सत्य तो अलग ही बात है। इस जगत् में जो सत्य कहा जाता है, वह बिलकुल अलग ही बात है। सत् का अर्थ ही यह है कि जो अविनाशी हो। अविनाशी हो और साथ-साथ गुण-पर्याय सहित हो
और अगुरु-लघु स्वभाववाला हो। अगुरु-लघु मतलब पूरण नहीं होता, गलन नहीं होता, बढ़ता नहीं है, घटता नहीं है, पतला नहीं हो जाता, वह सत् कहलाता है। आत्मा वह सत् है। फिर पुद्गल भी सत् है। मूल जो पुद्गल है परमाणु स्वरूप, वह सत् है, वह विनाशी नहीं है। उसमें पूरणगलन नहीं होता है। सत् कभी भी पूरण-गलन स्वभाववाला नहीं होता।
और जहाँ पूरण-गलन है वह असत् है, विनाशी है। देयर आर सिक्स इटर्नल्स इन दिस ब्रह्मांड! (ब्रह्मांड में ऐसे छह शाश्वत तत्व हैं।)' तो इन इटरनल्स को सत् शब्द लागू होता है। सत् अविनाशी होता है और सत् का अस्तित्व है, वस्तुत्व है और पूर्णत्व है। उत्पाद-व्यय-ध्रौव है, वहाँ सत् है!! हमें इस संसार में समझने के लिए सत् कहना हो तो आत्मा, वह सत् है, शुद्ध चैतन्य वह सत् है। सिर्फ शुद्धात्मा ही नहीं है, परन्तु दूसरे पाँच तत्व हैं। पर वे अविनाशी तत्व हैं। उन्हें भी सत् कहा जाता है। जिनका त्रिकाल अस्तित्व है, वह सारा सत् कहलाता है और ऐसे व्यवहारिक भाषा में सत्य जो कहलाता है, वह तो उस सत्य की अपेक्षा असत्य कहलाता है। वह तो घडीभर में सत्य और घड़ी में असत्य!
सच्चिदानंद और सुंदरम् यह सच्चिदानंद का सत् वह सत् है। सत्-चित्-आनंद (सच्चिदानंद) उसमें जो सत् है, वह इटरनल (शाश्वत) सत् है और यह सत्य, व्यवहारिक सत्य, वह तो भ्रांति का सत्य है।
क्या जगत् मिथ्या??? इसलिए आपको जो बातचीत करनी हो वह करो, सभी खलासे कर दूँगा। अभी तक जो जानते हो, वह जाना हुआ ज्ञान भ्रांतिज्ञान है। भ्रांतिज्ञान मतलब वास्तविकता नहीं है उसमें। यदि वास्तविकता होती तो अंदर शांति
होती, आनंद होता। भीतर आनंद का धाम है पूरा! पर वह प्रकट क्यों नहीं होता? वास्तविकता में आए ही नहीं हैं न! अभी तो 'फ़ॉरेन' को ही 'होम' मानते हैं। 'होम' तो देखा ही नहीं है।
यहाँ सब पूछा जा सकता है, अध्यात्म संबंधी इस वर्ल्ड की कोई भी चीज़ पूछी जा सकती है। मोक्ष क्या है, मोक्ष में क्या है, भगवान क्या है, किस प्रकार यह सब क्रियेट हुआ, हम क्या हैं, बंधन क्या है, कर्ता कौन, किस प्रकार जगत् चलता है, वह सब यहाँ पछा जा सकता है। मतलब कुछ बातचीत करो तो खुलासा हो। यह जगत् क्या है? यह सब दिखता है, वह सब सच है, मिथ्या है या झूठ है?
प्रश्नकर्ता : झूठ है।
दादाश्री : झूठ कह ही नहीं सकते! झूठ किस तरह कह सकते हैं? यह तो किसीकी बेटी को यहाँ से कोई उठाकर ले जाता हो तो गलत कहेंगे। पर अपनी बेटी को उठाकर ले जा रहा हो उस समय? गलत कहलाएगा ही किस तरह?! तो यह जगत् सच होगा या मिथ्या होगा?
प्रश्नकर्ता : जगत् को तो मिथ्या कहा है न!
दादाश्री : मिथ्या नहीं है जगत् ! यह कोई मिथ्या होता होगा? जगत् मिथ्या होता तो हर्ज ही क्या था? तो आराम से चोर को कहते कि. 'कोई हर्ज नहीं, यह तो मिथ्या ही है न!' यह रास्ते पर एक भी पैसा पड़ा हुआ दिखता है? लोगों के पैसे नहीं गिरते होंगे? सभी के पैसे गिरते हैं। पर तुरन्त उठा ले जाते हैं। वहाँ पर रास्ता कोरा का कोरा! इसलिए यह सोचना चाहिए इस तरह से। इस जगत् को मिथ्या कैसे कह सकते हैं?! यह पैसा कभी भी रास्ते में पड़ा हुआ नहीं रहता, सोने की कोई वस्तु, कुछ भी पड़ा हुआ नहीं रहता। अरे, झूठे सोने का हो तो भी उठा ले जाते हैं।
इसलिए मिथ्या कुछ है ही नहीं। मिथ्या तो, पराये की लाख रुपये की जेब कट जाए न, तब कहेगा, 'अरे जाने दो न, ब्रह्म सत्य-जगत् मिथ्या है!' और तेरे खुद के जाएँ तब पता चलेगा मिथ्या है या नहीं, वह ! यह तो सब दूसरों की जेबें कटवाई हैं लोगों ने ऐसे वाक्यों से। वाक्य तो