Book Title: Sanskrutik Avdan
Author(s): Bhagchandra Jain
Publisher: Z_Bharatiya_Sanskruti_me_Jain_Dharma_ka_Aavdan_002591.pdf

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Page 5
________________ . जीवन से जुड़ा सर्जनात्मक सर्वदेशीय तत्त्व है जो प्राणिमात्र को वास्तविक शान्ति का सन्देश देता है, मिथ्याज्ञान और अविद्या को दूर कर सत्य और न्याय को प्रगट करता है, तर्कगत आस्था और श्रद्धा को सजीव रखता है, बौद्धिकता को जाग्रत कर सद्भावना के पुष्प खिलाता है और बिखेरता है उस स्वानुभूति को, जो अन्तर में ऋजुता, सरलता और प्रशान्त वृत्ति को जन्म देती है । वह तो रिमझिम बरसते बादल के समान है जो तन-मन को आह्लादित कर आधि-व्याधियों की ऊष्मा को शान्त कर देता है। धर्म के दो रूप होते हैं एक तो वह व्यक्तिगत होता है जो परमात्मा की आराधना कर स्वयं को तद्रूप बनाने में गतिशील रहता है और दूसरा साधना तथा सहकार पर बल देता है। एक आन्तरिक तत्त्व है और दूसरा बाह्य तत्त्व है। दोनों तत्त्व एक दूसरे के परिपूरक होते हैं, जो आन्तरिक अनुभूति को सबल बनाये रखते हैं, बुद्धि, भावना और क्रिया को पवित्रता की ओर ले जाते हैं और मानवोचित गुणों का विकास कर सामाजिकता को प्रस्थापित करते हैं। - धर्म जब कालान्तर में मात्र रूढ़ियों का ढाँचा रह जाता है, तब सारी गड़बड़ी शुरू हो जाती है, विवेक-हीनता पनपती है और फिर साधक रागात्मक परिसीमा बंधकर धर्म के आन्तरिक सम्बन्ध को भूल जाता है, उसके निर्मल और वास्तविक रूप की छाया में घृणा और द्वेष भाव जन्म लेने लगते हैं। ऐसे ही धर्म के नाम पर हिंसा का ताण्डव नृत्य जितना हुआ है, उतना शायद ही किसी और नाम पर हुआ हो। इसलिए साधारण व्यक्ति धर्म से बहिर्मुख हो जाता है, उसकी तथ्यात्मकता को समझे बिना आस-पास के वातावरण को भी दूषित कर देता है। वस्तुतः हम न हिन्दू हैं, न मुसलमान, न जैन हैं, न बौद्ध, न ईसाई हैं, न यहूदी । हम तो पहले मानव हैं और धार्मिक बाद में । व्यक्ति यदि सही इन्सान नहीं बन सका तो वह धार्मिक कभी नहीं हो सकता, धर्म का मुखौटा भले ही वह कितना भी लगाये रखे। जैन संस्कृति की यह अप्रतिम विशेषता है। इसलिए सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि हम धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझें और इन्सानियत को बनाये रखने के लिए उसकी उपयोगिता को जाने । इन्सानियत को मारने वाली इन्सान में निहित कुप्रवृत्तियाँ और भौतिकवादी वासनायें हैं जो युद्ध और संघर्ष को जन्म देती हैं, व्यक्ति और राष्ट्र-राष्ट्र के बीच कटुता की अभेद्य दीवालें खड़ी कर देती हैं। धर्म के मात्र निवृत्तिमार्ग पर जोर देकर उसे निष्क्रियता का जामा पहनाना भी धर्म की वास्तविकता को न समझना है। धर्म तो वस्तुतः दुःख के मूल कारण रूप आसक्ति को दूर कर असाम्प्रदायिकता Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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