Book Title: Sanskrutik Avdan
Author(s): Bhagchandra Jain
Publisher: Z_Bharatiya_Sanskruti_me_Jain_Dharma_ka_Aavdan_002591.pdf

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Page 24
________________ किया गया है। विशेषता यह है कि जैन संस्कृति ने उसे व्यवहार धर्म का अंग बना दिया और अहिंसात्मकता की परिधि के भीतर उसे स्वीकार कर लिया। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि व्यवहार धर्म जैन संस्कृति में निश्चय धर्म के लिए सोपानवत् काम करता है। इसलिए वह भक्ति का अभिन्न अंग है और उपेक्षणीय नहीं है। इसका फल यह हुआ कि भक्ति शास्त्र का जन्म हुआ और मन्त्र-तन्त्र परम्परा स्तुतियों और स्तोत्रों का सृजन हुआ। निश्चय और व्यवहार धर्म के समन्वय से अहिंसा की परिधि में रहकर जैन संस्कृति वैदिक संस्कृति के समीप पहुँचका भी अपना पृथक् अस्तित्व बनाये रखने में सक्षम रही। शाकाहार की प्रतिष्ठा और पर्यावरण की सुरक्षा का आह्वान सबसे पहले जैन संस्कृति ने ही किया जो उसकी मूल अवधारणा का अंग था। (११) सामाजिक समता जैन संस्कृति भाव प्रधान संस्कृति है। इसलिए वहाँ ऊँच-नीच, स्त्री-पुरुष सभी के लिए समान स्थान रहा है। वैदिक संस्कृति में प्रस्थापित जातिवाद के कठोर श्रृंखला को काटकर महावीर ने जन्म के स्थान पर कर्म का आधार दिया उन्होंने कहा कि उच्च कुल में उत्पन्न होने मात्र से व्यक्ति को ऊँचा नहीं कह जा सकता। वह ऊँचा तभी हो सकता है जबकि उसका चारित्र या कर्तृत्व ऊँच हो, विशुद्ध हो। इसलिए महावीर ने समानता के आधार पर चारों जातियों के नई व्यवस्था की और उन्हें एक मनुष्य जाति के रूप में प्रस्तुत किया । मनुष्यजातिरेकैव। कम्मुणा बम्भणो होई, कम्मुणा होई खत्तियो। वइस्सो कम्मुणो होई, सुद्दो होई कम्मुणो।। उत्तरा. २५.१९.२० इसी सामाजिक समता के आधार पर महावीर ने सभी जातियों और सम्प्रदाय के लोगों को अपने धर्म में दीक्षित किया और उन्हें विशुद्ध आचरण देकर वीतरागत के पथ पर बैठा दिया। यही कारण है कि जैनाचार्यों में सभी जातियों के आचा हुए हैं। इसी प्रकार नारी को भी दासता से मुक्त कर उसे सामाजिक समता व ही देहली पर नहीं खड़ा किया बल्कि निर्वाण-प्राप्ति का भी अधिकार घोषित किया। यह उस समय का बहुत बड़ा क्रान्तिकारी सिंहनाद था। दास मुत्ति नारी मुक्ति और जातिभेद मुक्ति के क्षेत्र में जैन संस्कृति का यह अवदा अविस्मरणीय है। Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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