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सांस्कृतिक अवदान
जैन संस्कृति और अध्यात्म
संस्कृति एक आन्तरिक तत्त्व है, जो व्यक्ति और समाज के आत्मिक-संस्कारों पर केन्द्रित रहता है। सभ्यता उसका बाह्य-तत्त्व है, जो देश और काल के अनुसार परिवर्तित होता रहता है। यह परिवर्तन संस्कृति को प्रभावित भले ही कर दे पर उसमें आमूल परिवर्तन करने की क्षमता नहीं रहती। इसलिए संस्कृति की परिधि काफी व्यापक होती है। उसमें व्यक्ति का आचार-विचार, जीवन-मूल्य, नैतिकता, धर्म, साहित्य, कला, शिक्षा, दर्शन आदि सभी तत्त्वों का समावेश होता है। इन तत्त्वों को हम साधारण तौर पर सांस्कृतिक और सामुदायिक चेतना के अन्तर्गत निविष्ट कर सकते हैं।
व्यक्ति समाजनिष्ठ होने के बावजूद आत्मनिष्ठ है। पर सन्देह और तर्क की गहनता ने, बौद्धिक व्यायाम की सघनता ने उसकी इस आत्मनिष्ठता पर प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया है और उसकी आत्मानुभूति की शक्ति को पीछे ढकेल दिया है। वह कमजोरियों का पिण्ड है, इस तथ्य को जानते हुए भी अहङ्कार के कारण वह सार्वजनिक रूप से उसे स्वीकार नहीं कर पाता। यह अस्वीकृति उसका स्वभाव बन जाता है। फलत: क्रोधादि कषायों के आवेश और आवेग को वह अनियन्त्रित अवस्था में पाले रहता है। ___अध्यात्म एक सतत् चिन्तन की प्रक्रिया है, अन्तश्चेतना का निष्यन्द है। वह एक ऐसा संगीत स्वर है, जो एकनिष्ठ होने पर ही सुनाई देता है और स्वानुभव की दुनियां में व्यक्ति को प्रवेश करा देता है। स्वयं ही निष्पक्ष चिन्तन और ध्यान के माध्यम से वह अपनी कमजोरियों को बाहर फेकने के लिए आतर हो जाता है। उसका हृदय आत्मसुधार की ओर कदम बढ़ाने के लिए एक सशक्त माध्यम की खोज में निकल पड़ता है--- यह माध्यम है----धर्म और अध्यात्म।
पशु और मनुष्य को पृथक् करने वाला तत्व है- विवेक। विवेक न होने से पशु आज भी अपने आदिम जगत् में है जबकि मनुष्य ने विवेक के माध्यम
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से ही अपनी प्राण-शक्ति का विकास किया, विज्ञान की चेतना ने उसे नये आयाम दिये और प्रस्फुटित किये उसके सारे शक्ति-क्षेत्र जिनमें वह विकास के नये संकल्प, उपाय और साधन की खोज में निरन्तर लगा रहता है। उसकी इस निरन्तरता का सूत्र कभी भंग नहीं हो पाता। यह प्राणधारा प्रयत्न साध्य है। चेतना की सक्रियता और मनोबल की सक्षमता से ही वह उपलब्ध की जा सकती है। शरीर-बल
और वचन-बल से उसे क्रियाशक्ति मिल जाती है। यह क्रियाशक्ति व्यक्ति की संवेदना और चेतना के विकास-बोध की फलश्रुति है। संवेदना पर नियन्त्रण कर ज्ञान का विकास करना उसकी विशेषता है। अन्तर्मुखी होकर वह यथार्थ की साधना करता है, ध्यान करता है और प्रतिबिम्ब से परे जाने का प्रयत्न करता है। इसी प्रयत्न में अहिंसा और संयम उसका साथ देते हैं। प्रज्ञा और आत्म-साक्षात्कार से उसकी साधना का क्षेत्र बढ़ जाता है। तर्क और बुद्धि के सोपान से ही अनुभव की चेतना में वह प्रवेश कर जाता है।
हमारी स्वानुभूति की चेतना यह कहती है कि हमारा आचार और व्यवहार दूसरों के प्रति परिष्कृत हो। उसमें क्रूरता, विषमता और अहंमन्यता न हो, धोखाधड़ी न हो। हमारी मनःस्थिति यदि समता से भरे आचरण और व्यवहार से भर जाये तो अशान्ति स्वत: अदृश्य हो जाती है, संस्कार परिवर्तित हो जाते हैं, स्वभाव रूपान्तरित हो जाता है और प्रवाहित होने लगती है सामुदायिक चेतना की वह प्रशान्त धारा जिसमें सहिष्णुता, करुणा, सरलता और क्षमाशीलता जैसे अध्यात्मनिष्ठ तत्त्व सदैव जागत रहते हैं। ये तत्त्व व्यक्ति की अध्यात्मनिष्ठा के साथ जुड़ जाते हैं जहाँ पुरुषार्थ जाग जाता है पूर्ण ज्योति पाने के लिए और सृजनात्मक चेतना स्फुरित हो जाती है विजातीय तत्त्वों को दूर करने के लिए। साधक इस साध्य की प्राप्ति के लिए आत्मानुशासन से स्वयं को नियन्त्रित करता है, अवचेतन मन में पड़े हुए संस्कारों और वासनाओं को विशुद्ध करता है, और सारी क्षमताओं को अर्जितकर मानसिक असन्तुलन को दूर करता है निराग्रही वृत्ति से, सन्तुलित विशुद्ध शाकाहार से और निष्पक्ष वीतरागता के चिन्तन से। जैन संस्कृति ऐसी ही चिन्तनशीलता भरा वातावरण प्रस्तुत करती है साधक के समक्ष जो उसे सांस्कृतिक
और सामुदायिक चेतना की ओर मोड़ देता है। यह उसका एक विशिष्ट अवदान है। श्रमण और ब्राह्मण संस्कृति
भारतीय सांस्कृतिक क्षेत्र में प्रमुख रूप से श्रमण और ब्राह्मण परम्परायें पल्लवित होती रही हैं। दोनों परम्परायें पृथक्-पृथक् होते हुए भी परस्पर में परिपूरक
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हैं, अनुस्यूत हैं। प्राचीनतम वैदिक साहित्य में समागत वातरशना श्रमण, व्रात्य, अर्हत्, आर्हत, दिग्वासा, ऋषभ, असुर, ऊर्ध्वमन्थी, केशी, पुण्यशील, यति, मुनि आदि शब्द जैन संस्कृति के प्रभावशाली अस्तित्व की सूचना देते हैं और मोहनजोदड़ो, हड़प्पा तथा लोहानीपुर में प्राप्त योगी ऋषभदेव की कायोत्सर्गी मूर्तियां उसकी सांस्कृतिक विरासत की कथा कहती हैं ।
श्रमण और ब्राह्मण संस्कृतियां वस्तुतः हमारी मनोवृत्ति की परिचायिका हैं इसलिए वे परस्पर प्रभावित भी हुई हैं, उनमें आदान-प्रदान भी हुआ है। समता और पुरुषार्थशीलता पर प्रतिष्ठित श्रमणधारा के अध्यात्मप्रधान निवृत्तिमार्गीय चिन्तन से ब्राह्मणधारा प्रभावित हुई है और ब्राह्मणधारा के कर्मकाण्डीय तत्त्व ने श्रमणधारा को प्रभावित किया है। उपनिषदीय चिन्तन में परिदृष्ट परिवर्तन निश्चित रूप से श्रमणधारा के प्रभाव का परिणाम है और इसी तरह श्रमणधारा में स्वीकृत देवी-देवता, यक्ष-यक्षिणी समुदाय ब्राह्मणधारा से आयातित हुआ है। यहां यह संकेत करना आवश्यक नहीं है कि श्रमणधारा का मूल प्रवर्तन जैन संस्कृति से हुआ है ! बौद्ध संस्कृति तो छठी शताब्दी ई०पू० की देन है ।
सहस्रातिसहस्र प्राचीन इस जैन संस्कृति ने भारतीय संस्कृति को दार्शनिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्रों में अत्यन्त समृद्ध किया है। जैनाचार्यों ने अपने चिन्तन में जो वैज्ञानिकता, प्रगतिशीलता, सार्वजनीनता, एकात्मकता, जाति वर्गहीनता और वैयक्तिक स्वतन्त्रता का प्रस्फुटन किया है, वह नितान्त अनूठी है। यहां हम उसके अनूठेपन को दो भागों में विभाजित कर उसके अवदान पर चिन्तन करेंगे — सांस्कृतिक अवदान और साहित्यिक अवदान। इन दोनों अवदानों में श्रमण जैन संस्कृति में समतावाद, शमतावाद और पुरुषार्थवाद को आत्मसात करने का साहस दिखाई देता है और वर्गभेद, वर्णभेद, उपनिवेशवाद आदि जैसे असमानवादी तत्त्वों से कोसों दूर रखकर व्यक्ति और समाज को स्वातन्त्र्य और स्वावलम्बन की ओर कदम पहुंचाता नज़र आता है। जैने संस्कृति ने उपादान और निमित्त के माध्यम से तत्कालीन प्रचलित दार्शनिक मत-मतान्तरों में जो सामञ्जस्य प्रस्थापित करने का अथक् प्रयत्न किया है वह निश्चित ही स्तुत्य है ।
इस पृष्ठभूमि में परिपूरक होते हुए भी ब्राह्मण और श्रमण सांस्कृतिक विचारधाराओं के बीच एक विभेदक रेखा इस प्रकार खींची जा सकती है कि ब्राह्मण संस्कृति में 'ब्रह्म' ने विस्तार किया, उसने एक से विविध रूप लिये, अवतार धारण किये, स्वप्न और माया का सृजन हुआ, भक्तिशास्त्र का जन्म हुआ, विषमता पनपी और परमात्मा ईश्वर स्वरूप में अनुपलब्धेय हो गया। दूसरी
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ओर श्रमण विचारधारा ने तीर्थवादी प्रवत्ति को विकसित किया, इस पार से उस पार जाने की बात कही, और संसार से लौटकर, बहिरात्मन् से दूर होकर अन्तरात्मन् की ओर मुड़ने का तथा परमात्मा की ओर वापस जाने का संकल्प दिया। इस संकल्प में समर्पण नहीं, पुरुषार्थ है, वृत्तियों के सामने घुटने टेकना नहीं, साहसपूर्वक उनसे संघर्ष करना है, फैलाव नहीं, सिकुड़न है, अपने घर वापस लौटना है, विशुद्धता में पहुँचना है, अन्य किसी की भी शरण में न जाकर स्वयं की शरण में जाना है, हर आत्मा में परमात्मा तीर्थङ्कर का वास है, वह अनुपलब्धेय नहीं, सम्यक् साधना से उपलब्धेय है, पथदर्शक है। वहाँ पूजा नहीं, ध्यान है, वासना या राग नहीं, वीतराग अवस्था है। इसलिए वह जिन मार्ग है ऐसे जिनों का जिन्होंने कर्म, वासना को जीतकर स्वानुभूति के आधार पर उपदेश दिया है, स्वयं विशुद्धि के चरम शिखर पर पहुँचकर सभी प्राणियों के कल्याण की बात कही है। जिन मार्ग वस्तुत: क्षत्रिय मार्ग है, योद्धा मार्ग है; ऐसे योद्धाओं का जो इन्द्रिय वृत्तियों से संघर्ष करते हैं और निराकांक्षी होकर मृत्यु को जीत लेते हैं, परमानन्द का अनुभव करते हैं और भवसागर से पूर्णत: पार हो जाते हैं, अवतार के रूप में वापस नहीं आते। इस अन्तर के बावजूद दोनों संस्कृतियाँ एक-दूसरे की परिपूरक हैं।
(१) सांस्कृतिक अवदान इन दोनों अवधारणाओं में जैन संस्कृति श्रमण संस्कृति से सम्बद्ध है जिसे आचार्यों ने साहित्य के माध्यम से बड़ी सुगढ़ता के साथ स्पष्ट किया है। इतिहास की दृष्टि से उस संस्कृति के आद्य प्रणेता तीर्थङ्कर ऋषभदेव थे और उसे तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ और महावीर ने अनुप्राणित किया। उसी को उत्तरकाल में श्रुतधर और सारस्वत आचार्यों ने पल्लवित किया। उसी के आधार पर आचार्यों ने जैन संस्कृति की कतिपय मूल अवधारणाओं को लेकर संस्कृति के मूल कथ्य का विस्तार किया है।
संस्कृति के मूल कथ्य को धर्म की परिभाषा की परिधि में रखा जा सकता है। धर्म की अनेक प्रकार से परिभाषायें देकर जैन संस्कृति की अवधारणाओं को उसके माध्यम से स्पष्ट करने का तात्पर्य यह भी है कि जीवन के सारे कोण धर्म से सम्बद्ध रहते हैं। इसलिए जैन संस्कृति के अवदान को समझने के लिए धर्म को पहले समझ लिया जाये। (१) धर्म की परिधि-अपरिमित मानवता
धर्म महज रूढ़ियों और रीति-रिवाजों का परिपालन मात्र नहीं है। वह तो
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जीवन से जुड़ा सर्जनात्मक सर्वदेशीय तत्त्व है जो प्राणिमात्र को वास्तविक शान्ति का सन्देश देता है, मिथ्याज्ञान और अविद्या को दूर कर सत्य और न्याय को प्रगट करता है, तर्कगत आस्था और श्रद्धा को सजीव रखता है, बौद्धिकता को जाग्रत कर सद्भावना के पुष्प खिलाता है और बिखेरता है उस स्वानुभूति को, जो अन्तर में ऋजुता, सरलता और प्रशान्त वृत्ति को जन्म देती है । वह तो रिमझिम बरसते बादल के समान है जो तन-मन को आह्लादित कर आधि-व्याधियों की ऊष्मा को शान्त कर देता है।
धर्म के दो रूप होते हैं एक तो वह व्यक्तिगत होता है जो परमात्मा की आराधना कर स्वयं को तद्रूप बनाने में गतिशील रहता है और दूसरा साधना तथा सहकार पर बल देता है। एक आन्तरिक तत्त्व है और दूसरा बाह्य तत्त्व है। दोनों तत्त्व एक दूसरे के परिपूरक होते हैं, जो आन्तरिक अनुभूति को सबल बनाये रखते हैं, बुद्धि, भावना और क्रिया को पवित्रता की ओर ले जाते हैं और मानवोचित गुणों का विकास कर सामाजिकता को प्रस्थापित करते हैं।
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धर्म जब कालान्तर में मात्र रूढ़ियों का ढाँचा रह जाता है, तब सारी गड़बड़ी शुरू हो जाती है, विवेक-हीनता पनपती है और फिर साधक रागात्मक परिसीमा बंधकर धर्म के आन्तरिक सम्बन्ध को भूल जाता है, उसके निर्मल और वास्तविक रूप की छाया में घृणा और द्वेष भाव जन्म लेने लगते हैं। ऐसे ही धर्म के नाम पर हिंसा का ताण्डव नृत्य जितना हुआ है, उतना शायद ही किसी और नाम पर हुआ हो। इसलिए साधारण व्यक्ति धर्म से बहिर्मुख हो जाता है, उसकी तथ्यात्मकता को समझे बिना आस-पास के वातावरण को भी दूषित कर देता है। वस्तुतः हम न हिन्दू हैं, न मुसलमान, न जैन हैं, न बौद्ध, न ईसाई हैं, न यहूदी । हम तो पहले मानव हैं और धार्मिक बाद में । व्यक्ति यदि सही इन्सान नहीं बन सका तो वह धार्मिक कभी नहीं हो सकता, धर्म का मुखौटा भले ही वह कितना भी लगाये रखे। जैन संस्कृति की यह अप्रतिम विशेषता है।
इसलिए सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि हम धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझें और इन्सानियत को बनाये रखने के लिए उसकी उपयोगिता को जाने । इन्सानियत को मारने वाली इन्सान में निहित कुप्रवृत्तियाँ और भौतिकवादी वासनायें हैं जो युद्ध और संघर्ष को जन्म देती हैं, व्यक्ति और राष्ट्र-राष्ट्र के बीच कटुता की अभेद्य दीवालें खड़ी कर देती हैं। धर्म के मात्र निवृत्तिमार्ग पर जोर देकर उसे निष्क्रियता का जामा पहनाना भी धर्म की वास्तविकता को न समझना है। धर्म तो वस्तुतः दुःख के मूल कारण रूप आसक्ति को दूर कर असाम्प्रदायिकता
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को प्रस्थापित करता है, नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों को नयी दृष्टि देता है
और समतामूलक समाज की रचना करने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देता है। इस दृष्टि से धर्म की शक्ति अपरिमित और अजेय है, बशर्ते उसके वास्तविक स्वरूप को समझ लिया जाये। धर्म के इसी स्वरूप को स्पष्ट करना समूचे साहित्य और कला का अभिधेय रहा है।
धर्म की शताधिक परिभाषायें हुई हैं। उन परिभाषाओं का यदि वर्गीकरण किया जाये तो उन्हें साधारण तौर पर तीन प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है - मूल्यात्मक, वर्णनात्मक और क्रियात्मक। ये तीनों प्रकार भी एक-दूसरे में प्रवेश करते दिखाई देते हैं। कोई एक तत्त्व पर जोर देता है तो कोई दूसरे तत्त्व को अधिक महत्त्व देता है। इसलिए काण्ट जैसे दार्शनिकों ने उसके वैज्ञानिक स्वरूप को प्रस्तुत किया जिसमें मानवता को प्रस्थापित कर धर्म को ईश्वर-विश्वास से पृथक् कर दिया। कुन्दकुन्द, समन्तभद्र, हरिभद्र आदि जैनाचार्यों ने तो धर्म को इस रूप में बहुत पहले ही खड़ा कर दिया था।
यह सही है कि धर्म की सर्वमान्य परिभाषा करना सरल नहीं है पर उसे किसी सीमा तक इतना तो लाया ही जा सकता है कि वह अधिक से अधिक सार्वजनिक बन सके। एकेश्वरवाद की कल्पना ने ईश्वरीय पुरुष को खड़ा कर धर्म के साथ अनेक किंवदन्तियों और पौराणिक कल्पनाओं को गढ़ा है और व्यक्ति तथा राष्ट्र को शोषित किया है। धर्म के नाम जितने बेहूदे अत्याचार और युद्ध हुए हैं, वह उन अज्ञानियों का दुष्कृत्य है जिन्होंने कभी धर्म का अनुभव ही नहीं किया बल्कि निजी महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए अपनी पिछलग्गू जनता को भड़काया, भीड़ को जमा किया, उसकी आस्था और विश्वास का दुरुपयोग किया और धर्मान्धता की आग में धर्म की वास्तविकता को भस्म कर दिया, उसकी आध्यात्मिकता के निर्झर को सखा दिया। इसलिए धर्म के स्वरूप में स्वानुभूति का सर्वाधिक महत्त्व है। इसी को 'रसो वै सः' कहा गया है, अनिर्वचनीय और परमानन्द रूप माना गया है। एकेश्वरवाद से हटकर व्यक्ति सर्वेश्वरवाद की ओर जाता है और फिर स्वयं को ही परम विशुद्ध रूप परमात्मा के रूप में प्रतिष्ठित कर आत्मा को ही परमात्मा समझने लगता है। धर्म की यह विकास प्रक्रिया व्यष्टि से समष्टि की ओर ले जाती है और उसे विश्वजनीन बना देती है।
भारतीय संस्कृति में जब हम धर्म शब्द पर विचार करेंगे तो हमारा ध्यान ब्राह्मण और श्रमण संस्कृति की ओर बरबस खिच जाता है। 'धर्म' धृ धातु से निष्पन्न हुआ है जिसका अर्थ होता है बनाये रखना, धारण करना, पुष्ट करना
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(धारणात्, धर्ममित्याहुः धर्मेण विधृताः प्रजाः)। यह वह मानदण्ड है जो विश्व को धारण करता है, किसी भी वस्तु का वह मूल तत्त्व, जिसके कारण वह वस्तु है। वेदों में इस शब्द का प्रयोग धार्मिक विधियों के अर्थ में किया गया है। छान्दोग्योपनिषद् में धर्म की तीन शाखाओं (स्कन्धों) का उल्लेख किया गया है जिनका सम्बन्ध गृहस्थ, तपस्वी और ब्रह्मचारियों के कर्तव्यों से है- (त्रयो धर्मस्कन्धाः २.३)। जब तैत्तिरीय उपनिषद् हमसे धर्माचरण (धर्म चर- १.११) करने को कहता है, तब उसका अभिप्राय जीवन के उस सोपान के कर्त्तव्यों के पालन से होता है, जिसमें कि हम विद्यमान हैं। इस अर्थ में धर्म शब्द का प्रयोग भगवद्गीता और मनुस्मृति दोनों में हुआ है। बौद्ध धर्म के लिए यह शब्द धर्म, बुद्ध और संघ या समाज के साथ-साथ 'त्रिरत्न' में से एक है। पूर्व मीमांसा के अनुसार धर्म एक वांछनीय वस्तु है, जिसकी विशेषता है प्रेरणा देना- चोदना लक्षणार्थो धर्मः। वैशेषिकसूत्रों में धर्म की परिभाषा करते हुए कहा गया है कि जिससे आनन्द (अभ्युदय) और परमानन्द (निःश्रेयस्) की प्राप्ति हो, वह धर्म है – यतोभ्युदयनिःश्रेयस्सिद्धिः स धर्मः।
जैनधर्म आहेत् धर्म है। उसकी संस्कृति वीतरागता से उद्भूत हुई है जहाँ कर्मों को नष्ट कर, उनकी निर्जरा कर मोक्ष प्राप्त करना मुख्य उद्देश्य रहता है। इसलिए जैनाचार्यों ने अपनी संस्कृति के मूल में धर्म को संयोजित किया है और उसे जीवन के हर पक्ष से जोड़ने का प्रयत्न किया है। जैन संस्कृति को समझने के लिए उसमें निहित धर्म की विविध परिभाषाओं को समझना आवश्यक है। इन परिभाषाओं को हम स्थूल रूप से इस प्रकार विभाजित कर सकते हैं -
१. धर्म का सामान्य स्वरूप, २. धर्म का स्वभावात्मक स्वरूप, ३. धर्म का गुणात्मक स्वरूप, और ४. धर्म का मोक्षमार्गात्मक स्वरूप।
इन स्वरूपों के माध्यम से ही हम जैन संस्कृति की मूल अवधारणाओं को समझने का प्रयत्न करेंगे।
१.
जैनधर्म के साथ सम्प्रदायवाची जैन शब्द लगभग आठवीं शती में जुड़ा! इसके पूर्व उसे आर्हत् धर्म ही कहते थे। वैदिक और बौद्ध साहित्य में भी आहेत धर्म और दिगम्बर शब्दों का प्रयोग हुआ है।
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(२) आत्मा ही परमात्मा है
जैनधर्म आत्मवादी धर्म है। संसारी आत्मा ही कर्मों का स्वयं विनाश कर परमात्मा बन जाता है। इसलिए सभी जैनाचार्यों ने सामान्यतः धर्म उसे कहा है, जो सांसारिक दुःखों से उठाकर उत्तम वीतराग सुख में पहुँचाये। यथा -- १. संसारदुःखतः सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुख- रत्नकरण्डश्रावकाचार-२ २. इष्टस्थाने धत्ते इति धर्म: - सर्वार्थसिद्धि- ९; तत्त्वार्थवार्तिक, ९.२३.
यस्माज्जीवं नारक-तिर्यग्योनिकुमानुष-देवत्वेषु प्रपतन्तं धारयतीति धर्मः दशवैकालिकचूर्णि, पृ० १५; ललितविस्तरा, पृ० ९०; आवश्यकसूत्र, मलयवृत्ति, पृ० ५९२; पद्मपुराण, १४.१०३-४; महापुराण, २.३७; उत्तरा० चूर्णि, ३, पृ० ९८; धर्मामृत टीका-५; प्र० सा० जय० वृ० १-८ आदि।
जैनाचार्यों की धर्म की इन परिभाषाओं को देखकर ऐसा लगता है कि वे व्यक्ति को प्रथमत: सांसारिक दुःखों से परिचित कराना चाहते हैं और फिर आत्मा की विशुद्ध अवस्था रूप परमात्मा को प्राप्त करने का आह्वान करते हैं। यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि व्यक्ति बार-बार दुःख का साक्षात्कार करने से बीमारी की प्रगाढ़ता से परिचित हो जाता है, वस्तुस्थिति को स्वयं जानने लगता है और फिर उसी आत्मा में वास करने वाले परमानन्द स्वरूप को प्राप्त करने का लक्ष्य बना लेता है। तथाकथित ईश्वर रूप परमात्मा का भाव उसके मन में आता ही नहीं। है भी नहीं। इसलिए जैनधर्म को नकारात्मक और दुःखवादी नहीं माना जाना चाहिए। जैनधर्म संसार को स्वप्न और माया भी नहीं कहना चाहता। वह तो हमें उसकी यथार्थता से परिचित कराता है। इसलिए धर्म की यह परिभाषा बड़ी व्यावहारिक है और जैनधर्म भी उसी व्यावहारिक दृष्टिकोण के साथ संसारियों को दुःख से मुक्त कराने का प्रयत्न करता है। उसे वह उन दुःखों से पलायन करने की सलाह नहीं देता बल्कि जूझने और संघर्ष करने की प्रेरणा देता है
और आगाह करता है कि इन सांसारिक दुःखों का मूल कारण राग और द्वेष है। प्राणी कर्म मोह की प्रबलता से उन्मत्त होते हैं। वह जन्म-मरण का मूल है और जन्म-मरण की भाव-परम्परा दःख का मूल है। इस संसार में कहीं भी सुख नहीं है। जन्म-मरण के चक्कर में सुख होगा भी कहाँ? इसलिए यदि हम यथार्थ सुख पाना चाहते हैं तो जन्म-मरण के भव-चक्कर से मुक्त होना आवश्यक है। उपादेय भी यही है। आत्मा ही परमात्मा है, इस परमतत्त्व को समझने का मार्ग भी यही है।
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(३) आत्म-स्वातन्त्र्य
जैन सांस्कृतिक परम्परा में आत्म-स्वातन्त्र्य की घोषणा में व्यक्ति की स्वतन्त्रता उद्घोषित है। उसे स्वयं विचार और ध्यान करने की स्वतन्त्रता प्राप्त है। उसके ऊपर ईश्वर जैसा कोई तत्त्व नहीं है। वह स्वयं अपने कर्म का निर्माता और भोक्ता है। इस चिन्तन से वैराग्य का जागरण होता है, सचेतता आती है, क्रान्ति होती है, रूपान्तरण होता है और समता का जन्म हो जाता है। समता आने से साधक के चैतन्य की दशा विरागता से भर जाती है। वह संसार में रहते हुए भी उसी प्रकार वहाँ रहता है जिस प्रकार पोखर में खिला हआ कमल जो जल में रहता हुआ भी जल उसका स्पर्श भी नहीं कर पाता।
भावे विरत्तो मणिओ विसोगो, एएणदुक्खोहरपरंपरेण। न लिप्पई भवमझे वि संतो, जलेण वा पोखरणि पलासं।।
जैनधर्म के चिन्तन का केन्द्रीभूत तत्त्व आत्मा है। आत्मा के अतिरिक्त उसमें न संसार का मूल्य है और न सृष्टिकारक परमात्मा का। वह स्वार्थ की बात करता है, स्वयं के कल्याण की, मंगल की, आत्महित की! आत्महित की बात करने वाला ही परहित की बात सोच सकता है। वहां 'मैं' नाम के तत्त्व का भी कोई अस्तित्व नहीं। हाँ, अहङ्कार का विगलन आवश्यक हो जाता है। उसके विसर्जन बिना एकाकीपन आ ही नहीं सकता। कैवल्य की साधना एकाकीपन की साधना है। वह व्यष्टिनिष्ठ आनन्द है। जो स्वयं आनन्दित होता है वह दूसरे को भी आनन्दित कर देता है। दुःखी व्यक्ति दूसरे को आनन्दित कर ही नहीं सकता। यहाँ स्वार्थ में परार्थ सधा हुआ है। आत्मा में विशुद्ध परमात्मा का रूप बसा हुआ है। इसलिए आत्म-साधना से ही परमात्म-साधना होगी। परमात्मा कोई ईश्वर नहीं, सृष्टि का कर्ता-हर्ता-धर्ता नहीं। बहिरात्मा में व्यक्ति बाहर ही बाहर घूमता रहता है। उसका अन्तर का संगीत खोया रहता है, स्वभाव से विमुख रहता है। राग-द्वेषादि विकारों से ग्रस्त रहता है। जब जागरण विवेक का होता है तो वह संसार से विमुख हो उठता है, स्व-पर पर चिन्तन करने लगता है, अन्तरात्मा की ओर बढ़ जाता है और ध्यान- सामायिक करने लगता है। जब यह भी भेद समाप्त हो जाता है तो आत्मा की परमात्मावस्था आ जाती है। मनुष्य ही परमात्मा बन जाता है। आत्मा ही परमात्मा है यह क्रान्तिकारी उद्घोषणा जैनधर्म की निराली है। ईश्वर से मनुष्य को इतनी स्वतन्त्रता देना जैनधर्म की अपनी विशेषता है। नीत्शे ने कहा ईश्वर मर चुका है। अब आदमी स्वतन्त्र है कुछ भी करने के लिए। पर जैनधर्म ने इससे भी आगे बढ़कर कहा - ईश्वर
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का अस्तित्व था ही कहां? फिर उसके मरने का प्रश्न ही नहीं उठता। हर व्यक्ति में परमात्मा बैठा हुआ है। बस, उसे जागृत करने की आवश्यकता है। ईश्वर में जगत्-कर्तृत्व है ही नहीं। संसार तो उपादान-निमित्त का संयोजन मात्र है स्वयं ही। उसे ईश्वर कर्तृत्व की आवश्यकता नहीं होती।
संसार की सृष्टि निमित्त-उपादान कारणों से होती है। ईश्वर सृष्टि-कारक नहीं है। व्यक्ति स्वयं ही कर्ता है, स्वयं ही भोक्ता है। सारा उत्तरदायित्व स्वयं के शिर पर है। आत्मा ही सुख-दुःख का कर्ता है, भोक्ता है। सत्प्रवृत्ति में स्थित आत्मा अपना ही मित्र है। वह असंयम से निवृत्त होता है और संयम में प्रवृत्त होता है। निवृत्ति और प्रवृत्ति, उसकी एक साथ चलती हैं। सबसे बड़ा शत्रु यदि कोई है तो इन्द्रियाँ हैं, कषाय हैं जिन्हें जीतने के लिए व्यक्ति को सदैव संघर्ष करना पड़ता है, विवेक जाग्रत करना पड़ता है। तभी धर्माचरण हो पाता है। विवेक जाग्रत हो जाने पर सांसारिक सुख यथार्थ में सुखाभास लगने लगते हैं, उनमें झूठा आनन्द दिखाई देने लगता है, मृत्यु का चिन्तन प्रखर हो उठता है।
अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं य, दुष्पट्ठिय सुप्पट्टिओ।। एगप्पा अजिए सत्त, कसाया इन्द्रियाणि य। ते जिणित्तु, जहानायं विहरामि अहं मुणी।।
उत्तराध्ययन, २०.३७-३८ इस दृष्टि से जैन संस्कृति की प्रथम यह मूल अवधारणा है कि आत्मा अनन्त है। वे पृथक्-पृथक् हैं। उनमें अनन्त शक्ति और ज्ञान प्रवाहित हैं। मूलतः वह आत्मा विशुद्ध है, पर कर्मों के कारण उसकी विशुद्धता आवृत्त हो जाती है। वीतरागता प्राप्त करने पर वही संसारी आत्मा परमात्मा बन जाती है। जैन संस्कृति का यह लोकतन्त्रात्मक स्वरूप है जहां सभी आत्मायें बराबर हैं और वे सर्वोच्च स्थान पा सकती है। (४) समतावाद
धर्म का यह स्वभाव है कि वह समतामूलक हो। जैन संस्कृति की यह विशेषता है कि वह अथ से इति तक समता की बात करती है। समतावादी धर्म की परिभाषा के अन्तर्गत वस्तु और व्यक्ति के स्वभाव की ओर संकेत किया गया है। वस्तु का असाधारण धर्म ही उसका स्वभाव है, उसका भीतरी गुण ही उसका स्वरूप है। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप स्थिति में पदार्थ अपना स्वरूप
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बनाये रखता है। इसी में स्वभाव की दृष्टि से आत्मा के स्वरूप पर भी विचार किया गया है, जो समतामूलक है। जैसे -- १. धम्मो वत्थु सहावो - कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ४७८. २. स्वसंवेद्यो निरुपाधिकं हि रूपं वस्तुतः स्वभावोऽभिधीयते। ३. मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो धम्मो- भावपाहुड ८१ ४. धर्मः श्रुतचारित्रात्मको जीवस्यात्मपरिणाम: कर्मक्षयकारणम् (सूत्रकृतांग, शी०
वृ० २.५.१४). ५. सम्यग्दर्शनाद्यात्मपरिणामलक्षणो धर्मः - धर्मसंग्रहणी- मलयगिरि, वृ० २५.
___ धर्म सम्प्रदाय से ऊपर उठा हुआ है। सम्प्रदाय भीड़ है पर धर्म वैयक्तिक है, समूह नहीं। धार्मिक व्यक्ति अपने आपको अकेला करता जाता है, स्वभाव की ओर मुड़ता जाता है, स्वानुभूति के प्रकाश में संसार को छोड़ता जाता है
और एक दिन निष्काम बन जाता है। निष्काम त्याग का जीवन है। धर्म त्याग बिना आचरित नहीं हो सकता। वह माँग से दूर रहने की प्रक्रिया सिखाता है, मन की चंचलता को समझने की आवश्यकता पर बल देता है। इसलिए वह स्पष्ट कर देता है कि क्रोधादि विकारों को किसी भी कीमत पर आश्रय नद, अन्यथा ये फैल जायेंगे और अपना घर बना लेंगे। विकार भाव अपना घर न बना पाये यह तभी सम्भव है जब व्यक्ति का संकल्प दृढ़ हो, वह उनके सामने आत्मसमर्पण न करे। संकल्प के समक्ष सत्य रहता है, जिसकी कोई सीमा नहीं होती। असत्य की तो सीमा रहती है। संकल्पी व्यक्ति सत्य की खोज में रहता है। परमात्मावस्था को वापस पाने की तलाश में एकाकी बन जाता है और समत्व योग की साधना करता है। यही समता व्यक्ति का वास्तविक धर्म है, स्वभाव है। इसे हम यों भी कह सकते हैं कि समता अत् गत्यर्थक धातु से सिद्ध होकर सहजावस्था को द्योतित करती है जो ध्यान की उपान्त अवस्था है और समाधि उसकी अन्तिम साधना है।
समता मानवता का रस है, बर्बरता, पशुता, संकीर्णता उसका प्रतिपक्षी स्वभाव है। राग-द्वेषादि भाव उसके विकार-तन्तु हैं। ऋजुता, निष्कपटता, विनम्रता और प्रशान्तवृत्ति उसकी परिणति है। सहिष्णुता और सच्चरित्रता उसका धर्म है।
यद्यपि सापेक्षता व्यापकता लिये हुए रहती है पर मानवता के साथ सापेक्षता को सम्बद्ध करना उसके तथ्यात्मक स्वरूप को आवृत करना है। इसलिए समता की सत्ता मानवता की सत्ता में निहित है। ये दोनों सत्तायें आत्मा की विशुद्ध
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अवस्था के गुण हैं। इन गुणों से समवेत व्यक्तित्व को ही साधु कहा जा सकता है—
समयाए समणो होइ, बंभचेरेण बंभणो । नाणेण य मुणी होइ, तवेणं होड़ तावसो ।।
व्यवहारतः मानवता के साथ सापेक्षता के आधार पर विचार किया भी जा सकता है पर वास्तविक समता उससे दूर रहती है। समता में 'यदि, और, तो' का सम्बन्ध बैठता ही नहीं। वह तो समुद्र के समान गम्भीर, पृथ्वी के समान क्षमाशील और आकाश के समान स्वच्छ तथा व्यापक है। इसलिए समता का सही रूप धर्म है। यही उसका धर्म है।
उत्तराध्ययन, २५.३२
यही समता और धार्मिक चेतनता सांस्कृतिक और सामुदायिक चेतना का अविनाभावी अंग है जिसमें धृति और सहिष्णुता, अहिंसा और संवेग नियन्त्रण जैसे तत्त्व आपाद समाहित हैं। कर्मों का उपशमन और मोक्ष की प्राप्ति भी समता का ही परिणाम होता है।
जैन संस्कृति सामाजिक समता की पक्षधर है । उसमें जाति के स्थान पर कर्म को महत्त्व दिया गया है और स्वयं के पुरुषार्थ को प्रस्थापित किया गया है । यही पुरुषार्थ कल का नियति बन जाता है। इसलिये यहां ईश्वर का नहीं, पुरुषार्थ का सर्वोपरि स्थान है ।
(५) चारित्रिक विशुद्धि
धर्म को शाश्वत और चिरन्तन सुखदायी माना गया है पर उसके वैविध्य रूप में यह शाश्वतता धूमिल सी होने लगती है । समता का स्वरूप धूमिल होने की स्थिति में कभी नहीं आता। वह तो विकारी भावों की असत्ता में ही जन्म लेता है। क्रोधादिक विकारी भाव असमता विनम्रता, उद्धत्तता और संसरणशीलता की पृष्ठभूमि में प्रादुर्भूत होते हैं। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के समन्वित रूप की साधना से ही थे। विकारभाव तिरोहित होते हैं और वही सही तप है। आस्था इसकी आधारभूमि है।
चारित्र का सम्यक् परिपालन किये बिना दर्शन और ज्ञान की आराधना हो नहीं सकती । दर्शन और ज्ञान, आत्मशक्ति, आत्मविश्वास और आत्मज्ञान के प्रतीक हैं जो समता के मूल कारण हैं। इसलिए चारित्र को धर्म कहा गया हैं और धर्म ही यथार्थ जीवन है।
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धर्म तथा समता को राग-द्वेषादिक विकारभावों की अभावात्मक स्थिति कहा जाता है। ममत्व का विसर्जन और सहिष्णुता का सर्जन उसके आवश्यक अंग हैं। मानसिक चंचलता को संयम की लगाम से वशीभूत करना तथा भौतिकता की विषायग्नि को आध्यात्मिकता के शीतल जल से शमन करना समता की अपेक्षित तत्त्व दृष्टि है। सहयोग, सद्भाव, समन्वय और संयम उसके महास्तम्भ हैं। श्रमण का यही सही रूप है, स्वरूप है। इसी को आचार्य कुन्दकुन्द ने इस प्रकार कहा है -
चारितं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो ति णिद्दिट्ठो। मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्यणो हि समो।। सुविदितपयत्थसुत्तो संजमतवसंजुदो विगदरागो। समणो समसुहदुक्खो भणिदो सुद्धोवत्तिओगो ति।।१
समता आत्मा का सच्चा धर्म है। इसलिए आत्मा को समय भी कहा जाता है। समय की गहन और विशद व्याख्या करने वाले दशवैकालिक, समयसार आदि ग्रन्थ इस सन्दर्भ में द्रष्टव्य हैं। सामायिक जैसी क्रियायें उसके फील्ड वर्क हैं। अहिंसा उसी का एक अंग है। वह तो एक निर्द्वन्द्व और शून्य अवस्था है जिसमें व्यक्ति निष्पक्ष, वीतराग, सुख-दुःख में निर्लिप्त प्रशंसा-निन्दा में निरासक्त, लोष्ठ-कांचन में निर्लिप्त तथा जीवन-मरण में निर्भय रहता है। यही श्रमण अवस्था है।
वीतरागता से जुड़ी हुई समता आध्यात्मिक समता है जो आगमों और कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थों में दिखाई देती है। माध्यस्थ भाव से जुड़ी हुई समता दार्शनिक समता है जिसे हम स्याद्वाद, अनेकान्तवाद किंवा विभज्यवाद में देख सकते हैं। तथा कारुण्यमूलक समता पर व्यक्ति की विखण्डित, दरिद्र, पतित
और वीभत्स अवस्था देखकर/अनुभवकर राजनीति के कुछ वाद प्रस्थापित हुए हैं। मार्क्स का साम्यवाद ऐसी ही पृष्ठभूमि लिये हुए है। गांधी जी का सर्वोदयवाद महावीर के सर्वोदय तीर्थ पर आधारित है जिसका सर्वप्रथम प्रयोग आचार्य समन्तभद्र (ई० दूसरी-तीसरी सदी) ने किया था।
सर्वान्तवत् तद्गुणमुख्यकल्पं, सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षम्। सर्वापदामन्तकरं निरन्तं, सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव।।
१.
प्रवचनसार, १.७: १.१४.
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____ चारित्रिक विशुद्धि की आधारशिला वस्तुत: परिवार है और परिवार का धर्म है गृहस्थ धर्म है जिसे जैन संस्कृति में श्रावक या उपासक धर्म कहा जाता है। वह साधु सन्तों से उपदेश सुनकर साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ाता है। पारिवारिक, राष्ट्रिय और अन्तर्राष्टिय शान्ति की स्थापना का भी उत्तरदायित्व श्रावक के सबल कन्धों पर होता है। इसलिए श्रावक का जीवन सदाचारमय होना चाहिए। सामाजिक कर्त्तव्य भी उसके साथ जुड़ा हुआ है। आचार्य हरिभद्रसूरि, जिनमण्डनगणि, पण्डित आशाधर आदि चिन्तकों ने श्रावक के गुणों की एक लम्बी सूची दी है जिसमें सत्संग, सुश्रूषा, करुणा, सत्कार, कृतज्ञता, परोपकार आदि गुण उल्लेखनीय हैं। इन गुणों में भी न्यायपूर्वक धन कमाना, शाकाहारी वृत्ति रखना और करुणाशील होना श्रावक की पहचान कही जा सकती है।
न्यायोपात्तधनो यजत्गुणगुरून् सद्गीत्रिवर्ग भजन् नन्योन्यानुगुणं तदर्हगृहिणो-स्थानालयो हीमयः। युक्ताहारविहारआर्य-समितिः प्राज्ञःकृतज्ञो वशी शृण्वन् धर्मविधि दयालु धर्मीः सागारधर्म चरेत्।।
सागारधर्मामृत १.११, धर्मविन्दु, ३-५ (६) अनेकान्तवाद
मानवीय एकता, सह अस्तित्व, समानता और सर्वोदयता धर्म के तात्त्विक अंग है। तथाकथित धार्मिक विज्ञान और आचार्य इन अंगों को तोड़-मरोड़कर स्वार्थवश वर्गभेद और वर्णभेद जैसी विचित्र धारणाओं की विषैली आग को पैदा कर देते हैं जिसमें समाज की भेड़ियाधसान वाली वृत्ति वैचारिक धरातल से असम्बद्ध होकर कूद पड़ती है। उसके सारे समीकरण झुलस जाते हैं। दृष्टि में हिंसक व्यवहार अपने पूरे शक्तिशाली स्वर में गूंजने लगता है, शोषण की मनोवृत्ति सहानुभूति और सामाजिकता की भावना को दृषित कर देती है, वैयक्तिक और सामूहिक शान्ति का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है। इस दुर्व्यवस्था की सारी जिम्मेदारी एकान्तवादी चिन्तकों के सबल हिंसक कन्धों पर है जिसने समाज को एक भटकाव दिया है, अशान्ति का एक आकार-प्राकार खड़ा किया है और पड़ोसी को पड़ोसी जैसा रहने में संकोच, वितृष्णा और मर्यादाहीन भरे व्यवहारों की लौहिक दीवाल को गढ़ दिया है।
अनेकान्तवाद और सर्वोदय दर्शन इन सभी प्रकार की विषमताओं से
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आपादमग्न समाज को एक नई दिशा दान देता है। उसकी कटी पतंग को किसी तरह सम्भाल कर उसमें अनुशासन तथा सुव्यवस्था की सुस्थिर मजबूत और सामुदायिक चेतना से सजी डोर लगा देता है, आस्था और ज्ञान की व्यवस्था में प्राण फूँक देता है। तब संघर्ष के स्वर बदल जाते हैं। समन्वय की मनोवृत्ति, समता की प्रतिध्वनि, सत्यान्वेषण की चेतना गतिशील हो जाती है, अपने शास्त्रीय व्यामोह से मुक्त होने के लिये, अपने वैयक्तिक एकपक्षीय विचारों की आहुति देने के लिए, दूसरे के दृष्टिकोण को सम्मान देने के लिए और निष्पक्षता, निर्वैरता - निर्भयता की चेतना के स्तर पर मानवता को धूल-धूसरित होने से बचाने के लिये ।
सापेक्षिक कथन दूसरों के दृष्टिकोण को समान रूप से आदर देता है। खुले मस्तिष्क से पारस्परिक विचारों का आदान-प्रदान करता है, प्रतिपाद्य की यथार्थवत्ता प्रतिबद्धता से मुक्त होकर सामने आ जाती है। वैचारिक हिंसा से व्यक्ति दूर हो जाता है, अस्ति नास्ति के विवाद से मुक्त होकर नयों के माध्यम से प्रतिनिधि शब्द समाज और व्यक्ति को प्रेमपूर्वक एक प्लेटफार्म पर बैठा देते हैं। चिन्तन और भाषा के क्षेत्र में “न या सियावाय वियागरेज्जा" का उपदेश समाज और व्यक्ति के अन्तर्द्वन्द्वों को समाप्त कर देता है, सभी को पूर्ण न्याय देकर सरल, स्पष्ट और निर्विवाद अभिव्यक्ति का मार्ग प्रशस्त कर देता है। आचार्य सिद्धसेन ने “उदधाविव समुदीर्णास्त्वयि नाथ ! दृष्ट्यः " कहकर इसी तथ्य को अपनी भगवद् स्तुति में प्रस्तुत किया है। हरिभद्रसूरि की भी समन्वय - साधना इस सन्दर्भ में स्मरणीय है
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भववीजांकुरजनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णु र्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै । ।
(७) अहिंसा और अपरिग्रह
जैन संस्कृति अहिंसा और परिग्रह मूलक है। इसलिए धर्म के गुणात्मक स्वरूप पर चिन्तन करते समय जैनाचार्यों ने व्यक्ति और समाज को परस्पर-निष्ठ बताया है। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि धर्म वस्तुतः आत्मा का स्पन्दन है जिसमें कारुण्य, सहानुभूति, सहिष्णुता, परोपकारवृत्ति, संयम, अहिंसा, अपरिग्रह जैसे गुण विद्यमान रहते हैं। वह किसी जाति या सम्प्रदाय से प्रतिबद्ध नहीं । उसका स्वरूप तो सार्वजनिक, सार्वभौमिक और लोकमांगलिक है। व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और विश्व का अभ्युत्थान ऐसे ही धर्म की परिसीमा से सम्भव है।
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धर्म के इस गुणात्मक स्वरूप की परिभाषायें इस प्रकार मिलती हैं - १. धम्मो दयाविसुद्धो -- बोध पाहुड, २५ नियमसार व ६. वरांगचारित
१५-१०७, कार्तिकेया ९७. धम्मो मंगलमुक्किट्ठ अहिंसा संजमो तवो - दशवैकालिक सूत्र, १.१, तत्त्वार्थवार्तिक, ६.१३.५. सर्वार्थसिद्धि, ६.१३. जीवाणं रक्खणं धम्मो
कार्तिकेया. ४७८. ३. क्षान्त्यादिलक्षणो धर्मः - तत्त्वार्थसार, ६.४२, भावसंग्रह, ३०६,
तत्त्वार्थवृत्ति, श्रुत. ६-१३; ३. धर्मसं.श्रा.. १०-९९ आदि
धर्म और अहिंसा में शब्दभेद है, गुण भेद नहीं। धर्म अहिंसा है और अहिंसा धर्म है। क्षेत्र उसका व्यापक है। अहिंसा एक निषेधार्थक शब्द है। विधेयात्मक अवस्था के बाद ही निषेधात्मक अवस्था आती है। अत: विधिपरक हिंसा के अनन्तर इसका प्रयोग हुआ होगा। इसलिए संयम, तप, दया आदि जैसे विधेयात्मक मानवीय शब्दों का प्रयोग पूर्वतर रहा होगा।
हिंसा का मूल कारण है – प्रमाद और कषाय। १ उसके वशीभूत होकर जीव के मन, वचन, कार्य में क्रोधादिक भाव प्रगट होते हैं जिनसे स्वयं के शब्द प्रयोग रूप भाव प्राणों का हनन होता है। कषायादिक तीव्रता के फलस्वरूप उसके आत्मघात रूप द्रव्य प्राणों का हनन होता है। इसके अतिरिक्त दूसरे को मर्मान्तक वेदनादान अथवा परद्रव्यव्यपरोपण भी इन्हीं भावों का कारण है। इसलिए भिक्षुओं को कैसे चलना-फिरना, उठना-बैठना, खाना-पीना चाहिए इसका विधान मूलाचार, दशवैकालिक आदि ग्रन्थों में उपलब्ध है। ..
समस्त प्राणियों के प्रति संयम भाव ही अहिंसा है— अहिंसा निउणं दिट्ठा सब्बभूयेसु संजमो२ उसके सुख संयम में प्रतिष्ठित हैं। मन, वचन, काय से संयमी व्यक्ति स्व-पर का रक्षक तथा मानवीय गुणों का आगार होता है। शील, संयमादि गुणों से आपूर व्यक्ति ही सत्पुरुष है। जिसका चित्त मलीन और दूषित रहता है, वह अहिंसा का पुजारी कभी नहीं हो सकता। जिस प्रकार घिसना, छेदना, तपाना और रगड़ना इन चार उपायों से स्वर्ण की परीक्षा की जाती है, उसी प्रकार श्रुत, शील, तप और दया रूप गुणों के द्वारा धर्म एवं व्यक्ति की परीक्षा की जाती है - १. प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा, तत्त्वार्थसूत्र, ७.१३. '२. दशवैकालिकसूत्र, ६.९.
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घम्मो मंगलमुक्किट्ठ अहिंसा संजमो तवो। देवा पि तं नमस्संति जस्स धम्मे सया मणो।।
- दशवैकालिक, १.१ संजमु सीलु सउज्जु तवु सूरि हि गुरु सोई। दाहक-छेदक-संघायकसु उत्तम कंचणु होई।।
-- भावपाहुड १४३ पानी छानकर पीना, रात्रि भोजन निषेध, देवदर्शन, अष्टमूलगुणों का परिपालन, निर्व्यसनी जीवन, समन्वयात्मक दृष्टि आदि कुछ ऐसे नियमों का विधान इसीलिए किया गया है कि साधक अहिंसक और संयमी बनकर अहिंसक समाज की रचना कर सके। ___ जीवन का सर्वाङ्गीण विकास करना संयम का परम उद्देश्य रहता है। सूत्रकृतांग (१८.६) में इस उद्देश्य को एक रूपक के माध्यम से समझाने का प्रयत्न किया गया है। जिस प्रकार कछुआ निर्भय स्थान पर निर्भीक होकर चलता-फिरता है, किन्तु भय की आशंका होने पर शीघ्र ही अपने अंग-प्रत्यंग प्रच्छन्न कर लेता है और भय-विमुक्त होने पर पुन: अंग-प्रत्यंग फैलाकर चलना-फिरना प्रारम्भ कर देता है। उसी प्रकार संयमी व्यक्ति अपने साधना मार्ग पर बड़ी सतर्कतापूर्वक चलता है। संयम की विराधना का भय उपस्थित होने पर वह पंचेन्द्रियों व मन को आत्मज्ञान में ही गोपन कर लेता है। मैत्री, करुणा, मदिता और माध्यस्थ भाव समभाव की परिधि में आते हैं। समभावी व्यक्ति समाचारिता का पालक और सर्वोदयशीलता का धारक होता है।
अध्यात्म का सम्बन्ध अनुभूति से है और हिंसा-अहिंसा का सम्बन्ध अध्यवसाय -संकल्प से है। अध्यात्म और संकल्प से आस्था की सृष्टि होती है जिससे मानसिक दुर्बलता से भरी विलासिता समाप्त हो जाती है, स्वार्थ और अहिंसा का विसर्जन हो जाता है, परिशोधन और पवित्रता के आन्दोलन से वह जुड़ जाता है। वह भोग में भी योग खोज लेता है।
जैन संस्कृति मूलत: अपरिग्रहवादी संस्कृति है। जिन, निर्ग्रन्थ, वीतराग जैसे शब्द अपरिग्रह के ही द्योतक हैं। मूर्छा परिग्रह का पर्यायार्थक है। यह मूर्छा प्रमाद है और प्रमाद कषायजन्य भाव है। राग-द्वेषादि भावों से ही परिग्रह की प्रवृत्ति बढ़ती है। मिथ्यात्व, कषाय, नोकषाय आदि भाव अन्तरंग परिग्रह हैं और धन-धन्यादि बाह्य परिग्रह का मूल साधन हिंसा है। झूठ, चोरी, कुशील
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उसके अनुवर्तक हैं और परिग्रह उसका फल है । परिग्रही वृत्ति व्यक्ति को हिंसक बना देती है। इस हिंसक वृत्ति से तभी विमुख हो सकता है व्यक्ति जब वह अपरिग्रह या परिग्रह परिमाणव्रत का पालन करे ।
क्षमा, मार्दव आदि दस धर्मों का पालन भी धर्म है। मनुष्य गिरगिट स्वभावी है, अनेक चित्त वाला है। क्रोधादि विकारों के कारण वह बहुत भूलें कर डालत है । क्रोध विभाव है, परदोषदर्शी है। क्षमा आत्मा का स्वभाव है। परपदार्थों मे कर्तृत्व बुद्धि से, मिथ्यादर्शन से क्रोध उत्पन्न होता है और क्षमा सम्यग्दर्शन से उत्पन्न होती है । पञ्चम गुणस्थानवर्ती अणुव्रती से लेकर नौंवे - दसवें गुणस्थान में महाव्रती के उत्तमक्षमा है पर नौंवे ग्रैवेयक तक पहुँचने वाले मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी के उत्तमक्षमा नहीं होती ।
मार्दवमानका विरोधी भाव माना है। दुःख अपमान में नहीं, मान की आकांक्षा में है। ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, समृद्धि, तप, आयु और बल के अभिमान से दूसरे को नीचे दिखाने का भाव पैदा होता है। इससे सत्य की खोज नहीं हो पाती। बिना विनय के भक्ति और आत्मसमर्पण कहाँ ? प्रतिक्रिया और प्रतिशोध को जन्म देने वाले अहङ्कार को समाप्त किये बिना जीवन का बदलना सम्भव नहीं है । इसी तरह माया, लोभ आदि विकार भावों को भी विनष्ट किये बिना परम शान्ति नहीं मिलती।
1
धर्म आत्मस्थिति का मार्ग है, आत्मनिरीक्षण का पथ है। ऋजुता आये बिना धर्म का मर्म पाया नहीं जा सकता । शौचधर्म में चरित्र विशुद्ध हो जाता है और अकषाय की स्थिति आ जाती है और लोभ चला जाता है। सत्य, संयम तप, त्याग, आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य आदि धर्म भी आध्यात्मिक साधना को जाग्रत करते रहते हैं और विचारों की पवित्रता को बनाये रखते हैं। इन धर्मों का पालन करने से संकल्प शक्ति का विकास होता है और साधक ध्यान साधना कर आत्मस्वरू के चिन्तन में डूबने लगता है।
(८) रत्नत्रय की समन्वित साधना
तीर्थङ्कर महावीर ने साधना की सफलता के लिए तीन कारणों का निर्देश किया है - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र, इन तीनों तत्त्वों को समवे रूप में रत्नत्रय कहा जाता है। दर्शन का अर्थ श्रद्धा अथवा व्यावहारिक परिभाष में आत्मानुभूति के लिये प्रयास कह सकते हैं। श्रद्धापूर्वक ज्ञान और चारित्र सम्यक् योग ही मोक्ष रूप साधना की सफलता में मूलभूत कारण है। मात्र ज्ञान अथवा चारित्र से मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। इसलिए इन तीनों की समन्वित
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१९ अवस्था को ही मोक्षमार्ग कहा गया है- सम्यग्दर्शन ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गःतत्त्वार्थसूत्र १.१ । रत्नत्रय का पालन ही धर्म है। इस प्रकार की परिभाषायें देखिये१. सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः - रत्नकरण्ड श्रावकाचार, ३ २. धम्मो णाम सम्मइंसण-णाण-चरित्ताणि- धवला, पु. ८, पृ. ९२. ३. सम्यग्दृष्टि- प्राप्ति चारित्रं धर्मों रत्नत्रयात्मकः - लाटीसंहिता, ४.२३७-३८.
मोक्ष-प्राप्ति का रत्नत्रय के साथ अविनाभाव सम्बन्ध है। जिस प्रकार औषधि पर सम्यक् विश्वास, ज्ञान और आचरण किये बिना रोगी रोग से मुक्त नहीं हो सकता उसी प्रकार संसार के जन्म-मरण सभी रोग से मुक्त होने के लिए रत्नत्रय का सम्यक् योग होना आवश्यक है। तत्त्वार्थवार्तिक (१.१, पृ. १४) में इस सन्दर्भ में बड़े अच्छे दो श्लोक उद्धृत हुए हैं -
हतं ज्ञानं क्रियाहीनं हता चाज्ञानिनां क्रिया। धावन् किलान्यको दग्धः पश्यन्नपि च पंगुलः।। संयोगमेवेह वहन्ति तज्ज्ञानमेकचक्रेण रथः प्रयाति। अन्धश्च पंगुश्च वने प्रविष्टौ तौ संप्रयुक्तौ नगरे प्रविष्टौ।।
जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वों और पुण्य-पाप को मिलाकर नव पदार्थों में रुचि होना सम्यग्दर्शन है -- तच्चरुई सम्मत्तं-मोक्खपाहुड, ३८। सच्चे देव, शास्त्र और गुरु का ज्ञान होना भी सम्यग्दर्शन है। वह परोपदेश से अथवा परोपदेश के बिना भी प्रकट होता है। इन दोनों प्रकारों में आत्मप्रतीति होना मूल कारण है। आत्मप्रतीति से सम्याज्ञान होता है। सम्यग्ज्ञान वह है जिसमें संसार के सभी पदार्थ सही स्थिति में प्रतिबिम्बित हों। प्रमाण और नय इसी सीमा में आते हैं। सम्यक्त्व का महत्त्व "दंसणभट्टा भट्टा" गाथा से भली-भांति स्पष्ट हो जाता है।
सम्यक् आचरण को सम्यक्चारित्र कहा जाता है जिसमें कोई पाप-क्रियायें न हों, कषाय न हों, भाव निर्मल हों तथा पर-पदार्थों में रागादिक विकार न हों। यह सम्यक्चारित्र दो प्रकार का होता है - गृहस्थों के लिए और मुनियों के लिए। एक अणुव्रत है दूसरा महाव्रत है। इनमें अणुव्रतों की संख्या बारह है --- अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, दिग्व्रत, देशव्रत और अनर्थदण्डव्रत पंचव्रतों को पालन करने में सहायक बनते हैं और सामायिक,
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प्रोषधोपवास, भोगोपभोगपरिणाम तथा अतिथि संविभाग इन चार व्रतों का पालन करने से सामाजिकता का पालन होता है।
श्रावक बड़ी महत्त्वपूर्ण अवस्था है। इसमें व्यक्ति इस अवस्था तक पहुँच जाता है कि वह उपदेश ग्रहण करने का पात्र बन सके। वह बारह व्रतों का पालन घर में रहकर करता है। व्रत पालन करने से धीरे-धीरे उसकी चित्तवृत्तियाँ विशुद्धता की ओर बढ़ती चली जाती है। आत्मा में इस आध्यात्मिक क्रमिक विकास को जैनधर्म में प्रतिमा कहा गया है। उनकी संख्या बारह है। उनमें प्रारम्भ के छह प्रतिमाधारी गृहस्थ कहलाते हैं और वे जघन्य श्रावक हैं। सात से नवमी प्रतिमाधारी को ब्रह्मचारी या वर्णी कहा जाता है। वे मध्यम श्रावक हैं तथा दशवीं
और ग्यारहवीं प्रतिमा के धारक भिक्षुक कहलाते हैं और वे उत्कृष्ट श्रावक हैं। उनमें दशवी प्रतिमा तक साधक श्रावक गृहस्थावस्था में रहता है पर ग्यारहवीं प्रतिमा स्वीकार करने पर उसे गृहत्याग करना आवश्यक हो जाता है। उसके बाद वह परिपूर्ण निष्परिग्रही मुनि बन सकता है।
जैन मुनि २८ मूल गुणों का पालन करता है --- पाँच महाव्रत, पाँच समितियाँ, पञ्चेन्द्रियविजय, छह आवश्यक, केश लुञ्चनता, अचेलकता, अस्नानता, भशैय्या, स्थिति भोजन, अदन्त धावन और एकभुक्ति। इन मूलगुणों के परिपालन से उसके मन में संवेग और वैराग्य की भावना प्रबलतर होती रहती है। वह क्षमादि दश धर्मों का पालन करता है और अनित्य, अशरण आदि बारह भावनाओं का अनुचिन्तन करता है, बाईस परीषहों को सहजतापूर्वक सहन करता है तथा बाह्य तपों और अन्तरंग तपों का पालन करता है। (९) स्वाध्याय
जैन संस्कृति में स्वाध्याय को सर्वोत्तम तप माना गया है। वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मकथा के माध्यम से उसे किया जाता है। उसे धर्म में समाहित किया गया है। जैनागम ग्रन्थों में धर्म की उक्त चारों परिभाषाओं को एक स्थान पर भी एकत्रित किया गया है। आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में भी ये परिभाषायें बिखरी पड़ी हुई हैं। उनका सुन्दर सूत्रीकरण आचार्य कार्तिकेय ने किया है। जिसमें स्वाध्यान का रूप प्रतिबिम्बित हुआ है।
धम्मो वत्थुसहावो खमादिभावो य दसविहो धम्मो। रयणत्तयं च धम्मो जीवाणं रक्खणं धम्मो।।
(कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ४७८)
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उत्तरकालीन आचार्यों ने भी जहाँ कहीं आचार्य कार्तिकेय का अनुकरण किया है। वस्तुत: ये परिभाषायें धर्म के विविध रूपों को उजागर करती है। उनमें कोई भेद नहीं है, वर्णन करने का तरीका ही अलग-अलग है। इन सारी परिभाषाओं की आधारशिला है -
जं इच्छसि अप्पणत्तो, जं च नं इच्छति अप्पणंतो। तं इच्छ परस्स वि या, एत्तियगं जिणसासणं।।
अर्थात् अपने लिये वही चाहो जो तुम दूसरों के लिए भी चाहते हो और जो तुम अपने लिये नहीं चाहते वह दूसरों के लिए भी मत चाहो। यही जिनशासन है। स्वाध्याय के माध्यम से ही यह प्राप्तव्य है।
जैनधर्म में धर्म की ये सारी परिभाषाएँ समता को केन्द्र में रखकर बनाई गई हैं। समता पाने का इच्छक साधक तब मात्र परम्परा का पालन नहीं करता। वह तो अपने में हर पल क्रान्ति देखता है, नयो ज्योति पाता है। इसलिये धर्म वैयक्तिक है, सामूहिक नहीं। उस ज्योति को पाने में उसे स्वाध्याय सबसे बड़ा सहयोगी तत्त्व सिद्ध होता है और उसी तत्त्व से वह परम सत्य को उपलब्ध हो जाता है --- स्वाध्यायः श्रेयसे मतः । (१०) उपयोग और भक्ति
जैन संस्कृति में आत्मा से परमात्मा बनने के लिए शुद्ध भक्ति का आश्रय लिया जाता है। यहाँ आत्मा की व्याख्या 'उपयोग' शब्द के माध्यम से भी की गई है। यह उपयोग चैतन्य का परिणाम है, ज्ञान-दर्शन मूलक है। जो ज्ञानोपयोग इन्द्रियों की सहायता के बिना ही प्रगट होता है वह केवलज्ञान है, स्वभावज्ञान है। शेष चारों ज्ञानों में से मतिज्ञान और श्रुतज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता से होते हैं तथा अन्तिम दो ज्ञान अवधि ज्ञान और मनःपर्ययज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना ही उत्पन्न होते हैं। क्रमश: ये ज्ञान उत्तरोत्तर विमलता को लिये रहते हैं।
यह उपयोग तीन प्रकार का है - शुभोपयोग, अशुभोपयोग तथा शुद्धोपयोग। जीवों पर दया, शुद्ध मन-वचन-काय की क्रिया, शुद्ध दर्शन ज्ञानरूप उपयोग ये शुभोपयोग संवर तथा निर्जरा सहित मुख्यता से पुण्य कर्म के आस्रव के कारण हैं। पूजा, दान आदि में लीन आत्मा शुभोपयोगी होती है, पंच परमेष्ठियों के प्रति भक्ति-भाव से भी शुभोपयोग होता है। प्रशम, संवेग, मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ आदि भावनाओं से चित्त विशुद्ध होता है। पर राग, द्वेष, मोह
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आदि विकार भाव इस चित्त विशुद्धि को प्राप्त करने में बाधक बनते हैं । कषाय व्यक्ति को बांध देती है, काट देती है, क्रोध प्रीति को नष्ट करता है, अहङ्कार विनम्रता को नष्ट करता है, माया मैत्री को नष्ट करती है और लोभ सब कुछ नष्ट कर देता है। इन कषायों से दूर होने पर भी सम्यक् धर्म का उदय होता है । शुभोपायोग रूप व्यवहार धर्म पुण्य का कारण है और अशुभोपयोगी रूप असदाचरण पापकर्मास्रव का कारण है। आत्मा का शुद्ध स्वभाव शुद्धोपयोग है जो शुभोपयोग के माध्यम से प्राप्त होता है। शुद्धोपयोग ही मोक्ष का कारण है।
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शुभोपयोग व्यवहार धर्म है और शुद्धोपयोग निश्चय धर्म है । जीव का स्वभाव अतीन्द्रिय आनन्द है । जिस अनुष्ठान विशेष से उस आनन्द की प्राप्ति होती है वह धर्म कहा जाता है। वह दो प्रकार का है - एक बाह्य और अन्तरंग | दूसरा पूजा, दान, पुण्य, शील, संयम, व्रत, त्याग आदि बाह्य अनुष्ठान हैं और अन्तरंग अनुष्ठान समता व वीतरागता की साधना करना है । बाह्य अनुष्ठान व्यवहार धर्म है और अन्तरंग अनुष्ठान निश्चयधर्म है। निश्चय धर्म सम्यक्त्व रहित भी होता है । परमसमाधि रूप केवलज्ञान प्राप्त करने के लिए व्यवहार धर्म भी त्याज्य हो जाता है। इसके बावजूद निश्चय व व्यवहार धर्म सापेक्ष ही हैं, निरपेक्ष नहीं । सम्यक् व्यवहार धर्म संवर तथा कर्मनिर्जरा का तथा परम्परा से मोक्ष का कारण सिद्ध होता है।
श्रमण संस्कृति यद्यपि मूलतः स्व पुरुषार्थवादी संस्कृति है पर व्यवहार में वह अपने परम वीत्तराग इष्टदेव के प्रति श्रद्धा और भक्ति की अभिव्यक्ति से विमुख नहीं रह सकी। यह स्वाभाविक है और मनोवैज्ञानिक भी । व्यक्ति के मन में जिसके प्रति पूज्य भाव होता है, उसके प्रति निष्ठा, श्रद्धा, आस्था और भक्ति स्वयं स्फुरि होने लगती है और स्वर लय खोजने लगता है। स्तुति और स्तोत्र उसी लय का जीवन्त रूप है। संगीत का माधुर्य और हृदय का स्वर-स्रोत उसी से प्रवाहित होता है। भक्ति के माध्यम से आध्यात्मिकता के साथ-साथ भौतिक साधनों की प्राप्ति की भी लालसा जाग्रत होती है और उसी लालसा से मन्त्र-तन्त्र का प्रादुर्भाव होता है। इसलिए भक्ति अध्यात्म का निष्यन्द है और मन्त्र-तन्त्र उसके पत्र - पुष्प । निर्वाण प्राप्ति उसका फल और लक्ष्य है।
इस भूमिका पर बैठकर जब हम आगम और सिद्धान्त ग्रन्थों को देखते हैं, टटोलते हैं तो पाते हैं कि भक्ति वह आराधना है जो वीतराग देव के प्रति शुद्ध रत्नत्रय - परिणामों से की जाती है। वस्तुतः वह शुद्ध आत्मतत्त्व की भावना
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है। व्यवहार से सराग सम्यग्दृष्टि पंच परमेष्ठियों की आराधना-भक्ति करता है, विशुद्ध भावों के साथ उनके प्रति अनुराग व्यक्त करता है। यह भक्ति-दर्शन-विशुद्धि आदि के बिना हो नहीं सकती।
इस भक्ति की छह आवश्यक क्रियायें हैं – सामायिक, वन्दना, स्तुति, स्वाध्याय, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग। स्तुतियों में तीर्थङ्करों का स्तवन होता है और कायोत्सर्ग में निश्छल सीधे खड़े होकर २७ श्वासों में णमोकार मन्त्र का जप किया जाता है। प्रत्येक क्रिया के साथ भक्ति पाठों का निर्देश है। दैनिक और नैमित्तिक क्रियाओं में इन्हीं भक्तिपाठों का प्रयोग किया जाता है।
भक्ति तन्त्र से मन्त्र परम्परा का उद्भव हुआ। भक्ति के प्रवाह में आकर साधक परमात्मा की स्तुति करता है और उस स्तुति में वह वाचाल हो उठता है। मन्त्र उस वाचालता को कम करता है और मन को एकाग्र करके आध्यात्मिक अनुभव को पाने का प्रयत्न करता है। नामस्मरण, श्रवण, मनन, चिन्तन की पृष्ठभूमि में मन्त्र की उत्पत्ति होती है, मांगलिक कार्य करने के लिए इष्टदेव की स्तुति होती है, समास-पद्धति का आधार लेकर भगवान् का अनुचिन्तन होता है और मंगलवाक्य के रूप में मन्त्र की रचना हो जाती है।
विस्तार से समास की ओर जाने की यह एक सर्वमान्य स्वाभाविक प्रवृत्ति है। मन्त्र-तन्त्र परम्परा भी उसी से सम्बद्ध है। स्वानुभूति की सरसता का पान करने के लिए मन्त्र ही एक ऐसा माध्यम है जिसमें मानसिक चंचलता की दौड़ को विराम दिया जा सकता है। इसलिए मन्त्र की परिधि में समग्र तत्त्व-चिन्तन आ जाता है जो हमारे शुभ-अशुभ भावों के साथ घूमता रहता है। मन्त्र की सार्थकता हमारे भावों पर अधिक निर्भर करती है। जैनधर्म चूँकि भावों की शुद्धि
और अहिंसक आचरण पर अधिक जोर देता है इसलिए शैव और वैष्णव शाक्त परम्पराओं का प्रभाव होने पर भी जैन मन्त्र-तन्त्र परम्परा पर उनकी हिंसक मान्यता की कोई छाप दिखाई नहीं देती। कोई भी यक्ष, यक्षिणी, देवी-देवता ऐसा नहीं माना गया जिसका आकार-प्रकार वीभत्स और दुष्ट हो या हिंसा की गन्ध उसमें आती हो। यह विशेषता जैन संस्कृति की प्रगाढ़ अहिंसक भावना का फल है।
हवन, यज्ञ आदि क्रियायें भी यद्यपि जैन संस्कृति की मूल क्रियायें नहीं हैं फिर भी उन्हें धर्म का अंग मान लिया गया है। आचार्य हरिभद्र और जिनसेन के चिन्तन में इन क्रियाओं को वैदिक संस्कृति से लेकर अपने ढंग से आत्मसात्
१. नियमसार, १३४; समयसार, ता.वृ. १७४-१७६.
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किया गया है। विशेषता यह है कि जैन संस्कृति ने उसे व्यवहार धर्म का अंग बना दिया और अहिंसात्मकता की परिधि के भीतर उसे स्वीकार कर लिया। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि व्यवहार धर्म जैन संस्कृति में निश्चय धर्म के लिए सोपानवत् काम करता है। इसलिए वह भक्ति का अभिन्न अंग है और उपेक्षणीय नहीं है। इसका फल यह हुआ कि भक्ति शास्त्र का जन्म हुआ और मन्त्र-तन्त्र परम्परा स्तुतियों और स्तोत्रों का सृजन हुआ। निश्चय और व्यवहार धर्म के समन्वय से अहिंसा की परिधि में रहकर जैन संस्कृति वैदिक संस्कृति के समीप पहुँचका भी अपना पृथक् अस्तित्व बनाये रखने में सक्षम रही। शाकाहार की प्रतिष्ठा और पर्यावरण की सुरक्षा का आह्वान सबसे पहले जैन संस्कृति ने ही किया जो उसकी मूल अवधारणा का अंग था। (११) सामाजिक समता
जैन संस्कृति भाव प्रधान संस्कृति है। इसलिए वहाँ ऊँच-नीच, स्त्री-पुरुष सभी के लिए समान स्थान रहा है। वैदिक संस्कृति में प्रस्थापित जातिवाद के कठोर श्रृंखला को काटकर महावीर ने जन्म के स्थान पर कर्म का आधार दिया उन्होंने कहा कि उच्च कुल में उत्पन्न होने मात्र से व्यक्ति को ऊँचा नहीं कह जा सकता। वह ऊँचा तभी हो सकता है जबकि उसका चारित्र या कर्तृत्व ऊँच हो, विशुद्ध हो। इसलिए महावीर ने समानता के आधार पर चारों जातियों के नई व्यवस्था की और उन्हें एक मनुष्य जाति के रूप में प्रस्तुत किया । मनुष्यजातिरेकैव।
कम्मुणा बम्भणो होई, कम्मुणा होई खत्तियो। वइस्सो कम्मुणो होई, सुद्दो होई कम्मुणो।।
उत्तरा. २५.१९.२० इसी सामाजिक समता के आधार पर महावीर ने सभी जातियों और सम्प्रदाय के लोगों को अपने धर्म में दीक्षित किया और उन्हें विशुद्ध आचरण देकर वीतरागत के पथ पर बैठा दिया। यही कारण है कि जैनाचार्यों में सभी जातियों के आचा हुए हैं। इसी प्रकार नारी को भी दासता से मुक्त कर उसे सामाजिक समता व ही देहली पर नहीं खड़ा किया बल्कि निर्वाण-प्राप्ति का भी अधिकार घोषित किया। यह उस समय का बहुत बड़ा क्रान्तिकारी सिंहनाद था। दास मुत्ति नारी मुक्ति और जातिभेद मुक्ति के क्षेत्र में जैन संस्कृति का यह अवदा अविस्मरणीय है।
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(१२) वैयक्तिक स्वातन्त्र्य और कर्मवाद
जैन संस्कृति वैयक्तिक स्वातन्त्र्य पर विश्वास करती है। इसलिए उसने व्यक्ति को ही उसके सुख-दुःख का पूर्ण उत्तरदायी बनाया है। ज्ञान और अध्यात्म में समन्वय स्थापित कर हमारे आचरण की कार्य-कारणात्मक मीमांसा में उसने कर्मवाद को स्थापित कर ईश्वरवाद को नकार दिया है। संसार की विभिन्नता में कर्म को भी कारण बतलाकर उसे अनादि तथा शान्त बताया और मोक्ष प्राप्ति के मार्ग को पूर्ण वीतरागता तथा विशुद्धि के माध्यम से प्रशस्त किया ।
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कर्म अदृश्य है और पौद्गलिक है। उसे हम वासना और संस्कार नहीं कह सकते, क्योंकि वे तो धारणा या स्मृति से सम्बद्ध हैं। अच्छाई या बुराई से उसका कोई सम्बन्ध नहीं। उसका सम्बन्ध है हमारे कर्म से, राग-द्वेष से । राग-द्वेष का वलय ही हमारे आचरण का आधार बन जाता है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय के योग से कर्माश्रव होते हैं। वे सहज नहीं, आगन्तुक हैं। उनके वर्तमान के साथ अतीत और भविष्य भी जुड़ा रहता है।
अमूर्त आत्मा के साथ मूर्त कर्म का संयोग सम्बन्ध वैसे ही हो जाता है। जैसे अमूर्त आकाश का मूर्तघट से सम्बन्ध होकर वह घटाकाश, पटाकाश की संज्ञा पा जाता है। यह पौद्गलिक कर्म हमारे भावकर्म पर निर्भर करता है। भावचित्त का संवादी होता है। पौद्गलिकचित्त और पौद्गलिक चित्त का संवादी होता है— स्थूल शरीर | कर्तृत्व और भोक्तृत्व दोनों आपस में गुंथे हुए हैं। उन्हें किसी ईश्वररूप नियन्ता या नियामक की आवश्यकता नहीं होती । कर्म का विपाक स्वयं हो जाता है या तप से उनकी निर्जरा कर ली जाती है। इसे हम उदात्तीकरण या मार्गान्नरीकरण भी कह सकते हैं।
आत्मा में अचिन्त्य ज्ञान - दर्शन शक्ति का प्रस्फुटन कर्म - निर्जरा के बाद ही होता है । इस अवस्था को कोई भी व्यक्ति अपनी साधना से प्राप्त कर सकता है। यहां आत्मा की ही तीन अवस्थायें हैं. • बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । बहिरात्मा संसारावस्था है। अन्तरात्मा विशुद्ध पथ पर चलना है और परमात्मा पूर्ण वीतराग अवस्था है। ईश्वर का कोई स्थान नहीं है। संसार की सृष्टि निमित्तउपादान से स्वयमेव होती रहती है। व्यक्ति अपने ही श्रम और पुरुषार्थ से परमात्मा बन सकता है
(१३) दार्शनिक अवदान
जैनधर्म की समूची अवधारणाएं स्वानुभूति पर टिकी हुई हैं। इसलिए अहिंसा और समतावाद इस दर्शन की मूल भित्ति बनी। दार्शनिक क्षेत्र में भी इसी भित्ति
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पर प्रतिष्ठित होकर अनेकान्तवाद, स्याद्वाद, और प्रमाणवाद को संस्थापित किया, भेदविज्ञान ने अध्यात्म को पुख्ता किया और उत्पादव्यय- ध्रौव्यात्मक तत्त्ववाद ने संसार के स्वरूप को स्पष्ट किया।
बौद्धधर्म भेदवादी और असत्कार्यवादी है, न्याय-वैशेषिकों ने असत्कार्यवाद की प्रतिष्ठा की, सांख्य-योग सत्कार्यवादी हैं, मीमांसक बाह्यार्थवादी होकर परिणामवादी हैं। ये सभी दर्शन भेदवादी रहे हैं। जैन दर्शन ने अनेकान्तवाद के आधार पर भेदाभेदवाद की बात कहकर सदसत्कार्यवाद की संस्तुति की और इसी में क्षणभंगुरतावाद के सही दर्शन कराये।
जैन दर्शन ने आत्मा को नित्य, विशुद्ध और ज्ञान-दर्शन आदि गुणमय माना, परन्तु यह भी कहा कि मिथ्यात्व और अज्ञानता के कारण उसका यह स्वरूप धूल धूसरित हो जाता है। योगनिरोध से उस विशुद्ध मूल रूप को पुन: प्राप्त किया जा सकता है। आत्मा का यह स्वतन्त्र अस्तित्व जैनदर्शन की एक विशिष्ट देन है। मन को पौद्गलिक कहकर इस विचार को और भी पुख्ता कर दिया है।
___ यहां ईश्वर न तो जगत् का सृष्टिकर्ता है और न कर्म-फलप्रदाता। सृष्टि तो अणु-स्कन्धों के स्वाभाविक परिणमन से होती है। उसमें चेतन-अचेतन अथवा अन्य कारण कभी-कभी निमित्त अवश्य बन जाते हैं पर उनके संयोग-वियोग में ईश्वर जैसा कोई कारण नहीं होता। अपनी कारण-सामग्री के संवलित हो जाने पर यह सब स्वाभाविक परिणमन होता रहता है। संसार को षड्द्रव्यात्मक कहकर और काल स्वतन्त्र द्रव्य को मानकर इस विचार को और भी परिपुष्ट किया है।
प्रमाण का स्वरूप-मन्थन करते हुए जैनाचार्यों ने सम्यग्ज्ञान को प्रमाण माना और उसे स्व-पर प्रकाशक कहकर अविसंवादी होना आवश्यक कहा। सन्निकर्ष को यहां साधकतमकरण न मानकर ज्ञान को ही साधकतमकरण माना है।जैन दर्शन प्रमाणसंप्लववादी है। वह वेद को अपौरुषेय न मानकर प्रमाण को स्वतः
और परत: दोनों मानता है। उसने निश्चयात्मक सविकल्पकज्ञान को प्रत्यक्ष कहकर प्रत्यक्ष और परोक्ष की स्वतन्त्र अवधरणा दी है। यही चिन्तन उसकी विशिष्ट देन है। (१४) कलात्मक अवदान
कला आत्मानुभूति का पर्यायार्थक शब्द है। इसका सम्बन्ध मूल प्रवृत्तियों की अभिव्यक्ति से है। इसलिए इसमें अध्यात्म का भी निर्झर झरता है और इसी
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२७ के माध्यम से रागादि विकारों की भी खुलेपन से जानकारी दी जाती है। जैन संस्कृति में कला का मूल उद्देश्य अध्यात्म की अभिव्यक्ति है और सारी अभिव्यक्तियां उसी के इर्द-गिर्द घूमती रहती हैं।
जैन साधकों ने कला और स्थापत्य को एक नया आयाम दिया है। उन्होंने मूर्तिकला, वास्तुकला, अभिलेख, पाण्डुलिपि, चित्रशैली आदि सभी क्षेत्रों को परिष्कृत किया है। हडप्पा और लोहानीपुर से प्राप्त मस्तक विहीन नग्न कायोत्सर्गी मूर्तियाँ तथा मोहनजोदड़ो से प्राप्त इसी तरह की अन्य मूर्तियों की अवस्थिति को कदाचित् मूर्तिकला के क्षेत्र में जैनों का महत्त्वपूर्ण अवदान कहा जा सकता है। खारवेल के शिलालेख ने नन्दकालीन कलिंग जिन की मूर्ति का उल्लेख कर इस अवदान पर एक और हस्ताक्षर कर दिया है। मथुरा के कंकाली टीले में छिपी जैन कला सम्पदा ने तो और भी उसे समृद्ध कर दिया है। श्रवणबेलगोला की बाहुबली प्रतिमा तो विश्रुत है ही। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि शासन देवी-देवताओं के आने के बावजूद मूर्तिकला के क्षेत्र में अहिंसा का ही प्राधान्य रहा है। उसमें किसी भी मूर्ति के साथ हिंसक तत्त्व नहीं जुड़ा हुआ है। तन्त्र-मन्त्र का क्षेत्र भी अहिंसक ही रहा है।
मूर्तिकला के साथ ही गुफाओं और वास्तुकला का सम्बन्ध भी अविच्छिन है। बराबर, नागार्जुनी पहाड़, उदयगिरि- खण्डगिरि, रानीगुफा, गिरनार गुफायें, सोनभण्डार तथा दक्षिणापथ की मदुरै, रामनाथपुरम्, सितनवासल आदि में प्राप्त जैन गुफायें विशेष उल्लेखनीय हैं। आयागपट्ट, स्तूप, सरस्वती मूर्तियों, मन्दिर आदि के निर्माण ने वास्तुकला को और भी समृद्ध किया। नागर, वेसर और द्राविड शैलियों के साथ ही अन्य प्रादेशिक शैलियों का भी भरपूर प्रयोग जैन साधकों ने किया है। समूचे भारतवर्ष में जैन स्थापत्यकला फैली हुई है। शैलोत्कीर्ण गुफा मन्दिरों के अतिरिक्त पल्लव, चालुक्य, होयसल आदि सभी शैलियों में मन्दिरों का निर्माण हुआ है।
चित्रकला भावाभिव्यक्ति का सुन्दरतम उदाहरण है। उसमें उपदेश और सन्देश देने की अनूठी क्षमता है। जैनाचार्यों ने जैनधर्म के प्रचार में इसका समुचित उपयोग किया है। नायाधम्मकहाओ, वरांगचरित, आदिपुराण, हरिवंशपुराण आदि ग्रन्थों में चित्रकला का अच्छा वर्णन मिलता है। चित्रकला के भेदों में प्रमुख भेद है - भित्तिचित्र, कर्गलचित्र, काष्ठचित्र, पटचित्र, रंगावलि अथवा धूलिचित्र।
प्राचीनतम भित्तिचित्र शित्तनावासल के जैन गुफा मन्दिर में मिलते हैं। वहाँ जलाशय का एक सुन्दर चित्र बनाया गया है। एलोरा और श्रवणवेलगोला के
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मठों में भी यह चित्र परम्परा दिखाई देती है। यह परम्परा ११वीं शती तक अधिक लोकप्रिय रही। उसके बाद ताड़पत्रों पर चित्रांकन प्रारम्भ हो गया। मूडवद्री, पाटन आदि ग्रन्थ भण्डारों में यह चित्रांकन सुरक्षित है।
कर्गल (कागज) चित्र लगभग १४वीं शती के बाद अधिक मिलते हैं। पाण्डुलिपियों में कथाओं को चित्रांकित किया जाता था। कालकाचार्य कथा शान्तिनाथचरित, सुपासनाहचरिय, यशोधरचरित, कल्पसूत्र आदि को चित्रों में बांधा गया है। इस चित्रांकन में समृद्धि शैली, तैमूर चित्र शैली आदि का उपयोग हुआ है। इनमें रंगयोजना, विविध मुद्रायें, वेश-भूषा तथा स्थापत्य की अनेक परम्पराओं का अंकन हुआ है।
काष्ठ चित्र पाण्डुलिपियों पर लगे काष्ठफलकों पर बनाये जाते थे। इन पर विद्यादेवियों, तीर्थङ्करों और पशु-पक्षियों तथा मानवाकृतियों का अंकन किया जाता था। राजस्थान और गुजरात में इस शैली का प्रयोग किया गया है। इसी प्रकार पटचित्र और धूलिचित्र के भी उल्लेख साहित्य में मिलते हैं।
चित्रकला के इन विविध रूपों में जैन साधकों ने अपनी धार्मिक भावनाओं की सफल अभिव्यक्ति की है। उसके माध्यम से अन्तर्वृत्तियों का उद्घाटन, मनोदशाओं का अभिव्यञ्जन तथा रूप-भावना और आकृति-सौन्दर्य का चित्रण बड़ी सफलतापूर्वक हुआ है। (१५) एकात्मकता और राष्ट्रीयता
जैन संस्कृति में एकात्मकता और राष्ट्रीयता को उतना ही महत्त्व दिया गया है जितना चरित्र को। धर्म और संस्कृति परस्पर गुथे हुए अविच्छिन्न अंग हैं। उनकी सांस्कृतिकता व्यक्ति, समुदाय और राष्ट्र की एक अजीब नब्ज हुआ करती है जिसकी धड़कन को देख-समझकर उसकी त्रैकालिक स्थिति का अन्दाज लग जाता है। हमारी भारतीय संस्कृति में उतार-चढ़ाव और उत्थान-पतन आये पर सांस्कृतिक एकता कभी विच्छिन्न नहीं हो सकी। उसमें एकात्मकता के स्वर सदैव मुखरित होते रहे। इतिहास के उदय काल से लेकर आज तक इस वैशिष्ट्य को जैन संस्कृति सहेजे हुये है।
राष्ट्र एक सुन्दर मनमोहक शरीर है। उसके अनेक अंगोपांग है जिनकी प्रकृति और विषय भिन्न-भिन्न हैं। अपनी सीमा से उनका बन्धत्व है, लगाव है १. विशेष जानकारी के लिए देखिये- लेखक का ग्रन्थ 'जैन दर्शन और संस्कृति
का इतिहास', नागपुर विश्वविद्यालय, १९७७.
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और इसी लगाव से उनमें परस्पर संघर्ष भी होते हैं। इन सबके बावजूद वे मूल आत्मा से पृथक् होते दिखाई नहीं देते। आत्मा के नाम पर उनमें एकात्मकता सदैव बनी रहती है। यह एक ऐसी अन्विति है जिसमें बाह्य तत्त्व भी चिपक जाते हैं, रम जाते हैं और एक ही तत्त्व में समाहित हो जाते हैं।
हमारे राष्ट्र का अस्तित्व एकात्मकता की श्रृंखला से स्नेहिलतापूर्वक भली-भांति जुड़ा हुआ है जिसमें जैन संस्कृति का अनूठा योगदान है। राष्ट्रीयता का जागरण उसके विकास का प्राथमिक चरण है। जन-जन में और मन-मन में शान्ति, सह-अस्तित्व और चतुर्मुखी अहिंसात्मकता उसका चरमबिन्दु है। विविधता में पली - पुसी एकता, सौजन्य और सौहार्द को जन्म देती हुई “परस्परोपग्रहो जीवानाम्” का हृदयहारी पाठ पढ़ाती है और सज्जनता को प्रतिफलित करती है।
भाषा, धर्म, जाति और प्रादेशिकता एकता को विखण्डित करने के प्रबल कारण होते हैं। उनकी संकीर्णता से बंधा व्यक्ति न्याय और मानवता की दीवालों को लांघकर हिंसक क्रूर और आततायी हो जाता है। उसकी दृष्टि स्वार्थपरता के जहर से दूषित हो जाती है, हेयोपादेय के विवेक से मुक्त हो जाती है, सीमितता के चकाचौंध से अंधिया जाती है और हिंसक व्यवहार को जन्म देती है।
भाषा अभिव्यक्ति का एक स्वतन्त्र और सक्षम साधन है, साध्य नहीं है। जहां वह साध्य हो जाता है वहां आसक्तियों और संकीर्णताओं के घेरे में मनोमालिन्य, झगड़े-फसाद और कलह की चिनगारियाँ विषाद उगलने लगती हैं, चेतना समाप्त हो जाती है, होश गायब हो जाता है। मात्र बच जाता है विरोध, वैमनस्य और प्रादेशिकता की सड़ी गली भावनायें ।
एक वर्ग विशेष धर्म को अफीम मानता आया है। उसका दर्शन जो भी हो पर यह तथ्य इतिहास के पत्रों से छिपा नहीं है कि जब भी धार्मिक उन्माद उभरा अल्पसंख्यकों पर मुसीबत आयी और धर्म के नाम पर उन्हें बुरी तरह कुचला गया। धर्म का यदि सुपाक न हुआ हो तो वह विष से भी बदतर सिद्ध होता है। धर्म के अन्तस्तल तक पहुँचना सरल नहीं होता । तथाकथित धार्मिक और राजनीतिक नेता जब धर्म के मुखौटे को ओढ़कर जनसमुदाय की भावनाओं को उभारकर अपना उल्लू सीधा करते हैं तो वस्तुतः वे किसी देशद्रोही से कम नहीं हैं। भूसे से भरा उनका दिमाग और उगल भी क्या सकता है? धर्म की गली सकरी होती नहीं, बना दी जाती है और उसे इतनी सकरी बना देते हैं। हमारे अहंमन्य नेता कि उसमें दूसरा कोई प्रवेश कर ही नहीं पाता । प्रवेश के अभाव में खून खच्चर होने की आशंकायें बढ़ जाती हैं, संयम की सारी अर्गलायें
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टूट जाती हैं और अमानवीय भावनाओं को अनधिकृत प्रवेश मिल जाता है।
हमारी सारी राजनीति का केन्द्र-बिन्दु आज धर्म और जाति बन गया है। धर्मनिरपेक्षता की बात आज मात्र धोखे की टट्टी हो गई है। शैक्षणिक संस्थायें भी इस कराल गरल से बच नहीं पा रही हैं। कुर्सी बचाने और पाने की प्रवृत्ति ने हमारी नैतिकता पर कठोर पदाघात किया है। उसने नयी पीढ़ी के खून में अजीबोगरीब मानसिकता भर दी है, संस्कार दूषित कर दिये हैं और निकम्मेपन और कठमुल्लेपन को जन्म दिया है । आज भले और ईमानदार आदमी का जीवन दूभर होता जा रहा है। उसकी कराहती आवाज को सुनने वाला तो दूर सान्त्वना देने वाला भी नहीं मिलता। ऐसी स्थिति में हमारा देश कहाँ जायेगा यह अनबुझी पहेली बन गई है।
इतिहास के भूले-बिसरे पत्रों को यदि हम खोलकर पढ़ें तो यह तथ्य उद्घाटित हुए देर नहीं लगेगी कि हमारी भारतीय संस्कृति का धवल आँचल कभी मैला नहीं हुआ। आदिकाल से लेकर अभी तक वर्ण व्यवस्था की मूल आत्मा जब भी अपने पथ से भटकी, समाज में क्रूरता के दर्शन अवश्य हुए पर उस स्वार्थपरता भरी अहंमन्यता को वास्तविकता का चोला नहीं माना जा सकता। वह तो वस्तुतः ऐसी सड़ांध रही है जिसमें गर्दीली जातीयता और धार्मिक कट्टरता पनपी और न जाने कितने असहाय वर्गों को वैतरणी का विषपान करना पड़ा। ऐसे अपुनीत, असामाजिक और मानवीय दूषित कदमों को भारतीय संस्कृति का अंग नहीं कहा जा सकता। वह तो वस्तुतः विकृत मानसिकता का अंग रही है। आर्य-अनार्य की भेदक रेखा के पीछे भी ऐसे ही गर्हित तत्त्वों का हाथ रहा है। सरस्वती नदी का तट ऋग्वैदिक मन्त्रों से पवित्र हुआ पर धर्म के नाम पर पशु हिंसा से उसका पुनीत जल रक्तरंजित होने से भी नहीं बच सका। ऋग्वैदिक कालीन नैतिक आदर्शों की व्याख्या उत्तरकाल में बदलनी पड़ी। मर्यादा पुरुषोत्तम राम और यदुवंशी भगवान् कृष्ण ब्राह्मण और श्रमण संस्कृतियों के बीच की सुदृढ़ कड़ियाँ बन गये और भारतीय संस्कृति के समन्वयात्मक मूल स्वर और अधिक मिठास लेकर गुञ्जित होने लगे। इस मिठास को पैदा करने में जैनधर्म का बेजोड़ हाथ रहा है।
ब्राह्मण परम्परा की अनुश्रुतियों में लिच्छिवि, मल्ल, मोरिय आदि जातियों को व्रात्य कहा गया है। व्रात्य जन्मतः क्षत्रिय और आर्य जाति के थे, जो मूलतः मध्य देश के पूर्व या उत्तर-पश्चिम में रहते थे। उनकी भाषा प्राकृत थी और वेशभूषा अपरिष्कृत थी। वे चैत्यों की पूजा करते थे। आर्य द्रविड़ों, नाग, पणि और
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विद्याधर जाति से भी उनके सम्बन्ध थे। वर्णसंकरता उनमें बनी हुई थी। फिर भी अपने को वे क्षत्रिय मानते थे और श्रमण संस्कृति के पुजारी थे। उनके वैदिक यज्ञ विधान और जातिवाद के विरोधक प्रखर स्वर में आध्यात्मिकता व औपनिषदिक विचारधारा का उदय व्रात्य संस्कृति का ही परिणाम है जहाँ वैदिक यज्ञों को फूटी नाव की उपमा दी गई है।
श्रमण व्यवस्था ने उस एकात्मकता को अच्छी तरह परखा था और संजोया था अपने विचारों में जिन्हें तीर्थङ्करों और जैनाचार्यों ने समता, पुरुषार्थ और स्वावलम्बन को प्रमुखता देकर जीवन क्षेत्र को एक नया आयाम दिया और जिसे महावीर
और बुद्ध जैसे महामानवीय व्यक्तित्वों ने आत्मानुभूति के माध्यम से पुष्पित-फलित किया। श्रमण संस्कृति ने वैदिक संस्कृति में धोखे से आयी विकृत परम्पराओं के विरोध में अपनी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की और अनायास ही समाज का नवीनीकरण और स्थितिकरण कर दिया। इस समाज की मूल निधि चारित्रिक पवित्रता और अहिंसक दृढ़ता थी जिसे उसने थाती बनाकर कठोर झंझावातों में भी संभालकर रखा। विभज्यवाद और अनेकान्तवाद के माध्यम से समन्वय और एकात्मकता के लिए जो अथक प्रयत्न जैनधर्म ने किया है वह निश्चय ही अनुपम माना जायगा। बौद्धधर्म में तो कालान्तर में विकृतियाँ आ भी गईं पर जैनधर्म ने चारित्र के नाम पर कभी कोई समझौता नहीं किया।
___ अब मात्र संस्कृत ही साहित्यकारों की अभिव्यक्ति का साधन नहीं था। पालि, प्राकृत, अपभ्रंश जैसी लोकबोलियों ने भी जनमानस की चेतना को नये स्वर दिये और साहित्य सृजन का नया प्रांगण खुल गया। इस समूचे साहित्य में एकात्मकता का जितना सुन्दर ताना-बाना हुआ है वह अन्यत्र दुर्लभ है। अर्हन्तों
और बोधिसत्वों की वाणी ने जीवन-प्रासाद को जितना मनोरम और धवल बनाया उतनी ही उनके प्रति आत्मीयता जाग्रत होती रही। फलत: हर क्षेत्र में उनका अतुल योगदान सामने आया। भावात्मक एकता की सृजन-शक्ति भी यहीं से विकसित हुई।
इसी बीच मगध साम्राज्य का उदय हुआ। विदेशी आक्रमण हुए। उस राजनीतिक अस्थिरता को दूरकर एकता प्रस्थापित करने का काम किया- राष्ट्रनिर्माता कुशल प्रशासक मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने जिसने जैनाचार्य भद्रबाहु के साथ दक्षिण प्रदेश की यात्रा की और दिगम्बर मुनिव्रत धारण कर श्रवणबेलगोला में समाधिमरण पूर्वक शरीर त्याग दिया। अशोक (२६८-६९ ई०पू०) भी मूलत: जैन सम्राट् था जिसमें धार्मिक सहिष्णुता, सार्वभौमिकता, असाम्प्रदायिक मनोवृत्ति,
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अहिंसात्मक भावना, सद्विचार और एकात्मकता कूट-कूट कर भरी हुई थी।
मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद पुष्पमित्र शुंग ने ब्राह्मण साम्राज्य की स्थापना की। आन्ध्र-सातवाहन आये जिन्होंने प्राकृत भाषा को विशेष आश्रय दिया। कलिंग खारवेल भी जैन सम्राट् था जिसने मगध साम्राज्य से युद्ध कर कलिंग जिनमूर्ति को वापिस प्राप्त किया। इसी समय मूर्तिकला के क्षेत्र में गान्धारकला ने एक नयी दृष्टि-सृष्टि दी। मथुरा कला का भी अपने ढंग का विकास हुआ और वहाँ जैन, बौद्ध, वैदिक तीनों सम्प्रदाय समान रूप से विकास करते रहे। मथुरा की जैनकला कदाचित् प्राचीनतम कला है।
गुप्तकाल को हमारे इतिहास का स्वर्णयुग माना जाता है। पूज्यपाद, सिद्धसेन आदि प्रखर जैन विद्वान इसी काल में हुए जिन्होंने समन्वयवादिता पर विशेष जोर दिया। इसी युग में देवर्धिगणि द्वारा ४५३ ई० में वल्लभी में जैनागमों का संकलन हुआ।
गुप्त काल के बाद राजनीतिक विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्ति प्रारम्भ हो गई। इस काल में हर्ष की धार्मिक सहिष्णुता विशेष निदर्शनीय है। हर्ष की मृत्यु(६४६ई०) के उपरान्त उत्तर भारत में पाल, सेन, परमार, कलचुरि आदि कितने ही छोटे-मोटे राजा हुए जिन्होंने हमारी संस्कृति को सरक्षित ही नहीं रखा, बल्कि उसे बहत कुछ दिया भी है। वाकाटक, राष्ट्रकूट आदि राजवंशों ने भी जैनधर्म का पालन करते हुए सांस्कृतिक एकता के यज्ञ में अपना योगदान दिया।
पूर्व मध्यकाल में चालुक्य, पाल, चेदि, चन्देल आदि वंश आये जिन्होंने शैव और वैष्णव मत का विशेष प्रसार किया। शाक्त और नाथ सम्प्रदाय भी उदित हुए। ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गणेश, दिक्पाल आदि की पूजा का प्रचलन बढ़ा और अवतारवाद का खूब प्रचार-प्रसार बढ़ा। इसी काल में बौद्धधर्म की तान्त्रिकता ने उसे पतन का रास्ता बता दिया। पर जैनधर्म अपेक्षाकृत अधिक अच्छी स्थिति में रहा। विशेषत: दक्षिण भारत में उसे अच्छा राज्याश्रय मिला। यद्यपि लिंगायत सम्प्रदाय द्वारा ढाये गये अत्याचारों को भी उसे झेलना पड़ा। फिर भी अपनी चारित्रिक निष्ठा के कारण जैनधर्म नामशेष नहीं हो सका। यह इसलिए भी हुआ कि जैनधर्म वैदिक धर्म के अधिक समीप आ गया था। कला के क्षेत्र में उसका यह रूप आसानी से देखा जा सकता है।
जैनधर्म प्रारम्भ से ही वस्तुतः एकात्मकता का पक्षधर रहा है। उसका अनेकान्तवाद का सिद्धान्त अहिंसा की पृष्ठभूमि में एकात्मकता को ही पुष्ट करता रहा है। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है। हिंसा के विरोध में अभिव्यक्त अपने ओजस्वी
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और प्रभावक विचारों से जैनाचार्यों ने एक ओर जहाँ दूसरों के दुःखों को दूर करने का प्रयास किया वही मानव-मानव के बीच पनप रहे अन्तर्द्वन्द्वों को समाप्त करने का भी मार्ग प्रशस्त किया। समन्तभद्र ने उसी को सर्वोदयवाद कहा था। हरभद्र और हेमचन्द्र ने इसी के स्वर को नया आयाम दिया था। प्रारम्भ से लेकर अभी तक सभी जैनाचार्य अपने उपदेश और साहित्य सृजन के माध्यम से एकात्मकता की प्रतिष्ठा करने में ही लगे रहे हैं। इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण नहीं जिसमें जैन धर्मावलम्बियों ने किसी पर आक्रमण किया हो और एकात्मकता को धक्का लगाया हो। भारतीय संस्कृति में उसका यह अनन्य योगदान है जिसे किसी भी कीमत पर झुठलाया नहीं जा सकता। मुसलिम आक्रमणकारियों द्वारा मन्दिरों और शास्त्र भण्डारों के नष्ट किये जाने के बावजूद जैनधर्मावलम्बियों ने अपनी अहिंसा और एकात्मकता के स्वर में आँच नहीं आने दी। यह उनकी अहिंसक धार्मिक जीवन पद्धति और दार्शनिक, आध्यात्मिक तथा सामाजिक चिन्तन का परिणाम था कि सदैव उसने जोड़ने का काम किया, तोड़ने का नहीं। (१६) लोक बोली प्राकृत का प्रयोग ___ व्यक्ति और समाज को जोड़ने के लिए मातृभाषा का प्रयोग एक आवश्यक तत्त्व है। सभी को जोड़ने का और अपनी विचारधारा को सशक्त ढंग से प्रस्तुत करने का भी वह एक महनीय साधन है। तीर्थंकर महावीर ने उस समय बोली जाने वाली प्राकृत को अपनी अभिव्यक्ति का साधन बनाया और अपने दर्शन को जनता के समक्ष रखा। जनता ने भी उसका भरपूर स्वागत किया। अभिव्यक्ति के क्षेत्र में लोक बोली का प्रयोग निश्चित ही एक क्रान्तिकारी कदम था। उत्तरकालीन जैनाचार्यों ने भी अभिव्यक्ति के लिए इसी साधन को अपनाया। यही कारण है कि जैन साहित्य प्राकृत में बहत मिलता है।
जैन संस्कृति की ये मूल अवधारणाएँ मानवतावाद के विकास में सदैव कार्यकारी रही है। उन्होंने आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक क्षेत्र से भ्रष्टाचार दूर कर सर्वोदयवाद और अहिंसावादी विचारधारा को प्रचारित करने का अथक् प्रयत्न किया, धनोपार्जन के सिद्धान्तों को न्यायवत्ता की ओर मोड़ा, मूक प्राणियों की वेदना को अहिंसा की चेतनादायी संजीविनी से दूर किया, शाकाहार पर पूरा बल देकर पर्यावरण की रक्षा की और सामाजिक विषमता की सर्वभक्षी अग्नि को समता के शीतल जल और मन्द वयार से शान्त किया। जीवन के हर अंग में अहिंसा और मद्य, माँस, द्यूत आदि जीवनघाती व्यसनों से मुक्ति के महत्त्व को प्रदर्शित कर मानवता के संरक्षण में जैन संस्कृति ने सर्वाधिक योगदान दिया
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________________ 34 है। यह उसकी गहन चरित्र-निष्ठा का परिणाम है। बारह व्रतों में अनर्थदण्डवर को जोड़कर उसने और भी महनीय प्रतिष्ठा का काम किया है। पर्यावरण वं सुरक्षित रखने का भी उत्तरदायित्व जैनों ने अच्छी तरह निभाया है। उनकी वैज्ञानिव दृष्टि भी उल्लेखनीय रही है। यह तथ्य जैन साहित्य से परिपुष्ट हो जाता। इसलिए हम यहां जैनाचार्यों द्वारा लिखित साहित्य का संक्षिप्त विवरण दे से हैं। जैन चिन्तकों का यह साहित्यिक योगदान प्रभूत मात्रा में है। 2010_04