Book Title: Sanskrutik Avdan
Author(s): Bhagchandra Jain
Publisher: Z_Bharatiya_Sanskruti_me_Jain_Dharma_ka_Aavdan_002591.pdf

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Page 29
________________ २९ और इसी लगाव से उनमें परस्पर संघर्ष भी होते हैं। इन सबके बावजूद वे मूल आत्मा से पृथक् होते दिखाई नहीं देते। आत्मा के नाम पर उनमें एकात्मकता सदैव बनी रहती है। यह एक ऐसी अन्विति है जिसमें बाह्य तत्त्व भी चिपक जाते हैं, रम जाते हैं और एक ही तत्त्व में समाहित हो जाते हैं। हमारे राष्ट्र का अस्तित्व एकात्मकता की श्रृंखला से स्नेहिलतापूर्वक भली-भांति जुड़ा हुआ है जिसमें जैन संस्कृति का अनूठा योगदान है। राष्ट्रीयता का जागरण उसके विकास का प्राथमिक चरण है। जन-जन में और मन-मन में शान्ति, सह-अस्तित्व और चतुर्मुखी अहिंसात्मकता उसका चरमबिन्दु है। विविधता में पली - पुसी एकता, सौजन्य और सौहार्द को जन्म देती हुई “परस्परोपग्रहो जीवानाम्” का हृदयहारी पाठ पढ़ाती है और सज्जनता को प्रतिफलित करती है। भाषा, धर्म, जाति और प्रादेशिकता एकता को विखण्डित करने के प्रबल कारण होते हैं। उनकी संकीर्णता से बंधा व्यक्ति न्याय और मानवता की दीवालों को लांघकर हिंसक क्रूर और आततायी हो जाता है। उसकी दृष्टि स्वार्थपरता के जहर से दूषित हो जाती है, हेयोपादेय के विवेक से मुक्त हो जाती है, सीमितता के चकाचौंध से अंधिया जाती है और हिंसक व्यवहार को जन्म देती है। भाषा अभिव्यक्ति का एक स्वतन्त्र और सक्षम साधन है, साध्य नहीं है। जहां वह साध्य हो जाता है वहां आसक्तियों और संकीर्णताओं के घेरे में मनोमालिन्य, झगड़े-फसाद और कलह की चिनगारियाँ विषाद उगलने लगती हैं, चेतना समाप्त हो जाती है, होश गायब हो जाता है। मात्र बच जाता है विरोध, वैमनस्य और प्रादेशिकता की सड़ी गली भावनायें । एक वर्ग विशेष धर्म को अफीम मानता आया है। उसका दर्शन जो भी हो पर यह तथ्य इतिहास के पत्रों से छिपा नहीं है कि जब भी धार्मिक उन्माद उभरा अल्पसंख्यकों पर मुसीबत आयी और धर्म के नाम पर उन्हें बुरी तरह कुचला गया। धर्म का यदि सुपाक न हुआ हो तो वह विष से भी बदतर सिद्ध होता है। धर्म के अन्तस्तल तक पहुँचना सरल नहीं होता । तथाकथित धार्मिक और राजनीतिक नेता जब धर्म के मुखौटे को ओढ़कर जनसमुदाय की भावनाओं को उभारकर अपना उल्लू सीधा करते हैं तो वस्तुतः वे किसी देशद्रोही से कम नहीं हैं। भूसे से भरा उनका दिमाग और उगल भी क्या सकता है? धर्म की गली सकरी होती नहीं, बना दी जाती है और उसे इतनी सकरी बना देते हैं। हमारे अहंमन्य नेता कि उसमें दूसरा कोई प्रवेश कर ही नहीं पाता । प्रवेश के अभाव में खून खच्चर होने की आशंकायें बढ़ जाती हैं, संयम की सारी अर्गलायें Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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