Book Title: Sanskrutik Avdan
Author(s): Bhagchandra Jain
Publisher: Z_Bharatiya_Sanskruti_me_Jain_Dharma_ka_Aavdan_002591.pdf

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Page 26
________________ २६ पर प्रतिष्ठित होकर अनेकान्तवाद, स्याद्वाद, और प्रमाणवाद को संस्थापित किया, भेदविज्ञान ने अध्यात्म को पुख्ता किया और उत्पादव्यय- ध्रौव्यात्मक तत्त्ववाद ने संसार के स्वरूप को स्पष्ट किया। बौद्धधर्म भेदवादी और असत्कार्यवादी है, न्याय-वैशेषिकों ने असत्कार्यवाद की प्रतिष्ठा की, सांख्य-योग सत्कार्यवादी हैं, मीमांसक बाह्यार्थवादी होकर परिणामवादी हैं। ये सभी दर्शन भेदवादी रहे हैं। जैन दर्शन ने अनेकान्तवाद के आधार पर भेदाभेदवाद की बात कहकर सदसत्कार्यवाद की संस्तुति की और इसी में क्षणभंगुरतावाद के सही दर्शन कराये। जैन दर्शन ने आत्मा को नित्य, विशुद्ध और ज्ञान-दर्शन आदि गुणमय माना, परन्तु यह भी कहा कि मिथ्यात्व और अज्ञानता के कारण उसका यह स्वरूप धूल धूसरित हो जाता है। योगनिरोध से उस विशुद्ध मूल रूप को पुन: प्राप्त किया जा सकता है। आत्मा का यह स्वतन्त्र अस्तित्व जैनदर्शन की एक विशिष्ट देन है। मन को पौद्गलिक कहकर इस विचार को और भी पुख्ता कर दिया है। ___ यहां ईश्वर न तो जगत् का सृष्टिकर्ता है और न कर्म-फलप्रदाता। सृष्टि तो अणु-स्कन्धों के स्वाभाविक परिणमन से होती है। उसमें चेतन-अचेतन अथवा अन्य कारण कभी-कभी निमित्त अवश्य बन जाते हैं पर उनके संयोग-वियोग में ईश्वर जैसा कोई कारण नहीं होता। अपनी कारण-सामग्री के संवलित हो जाने पर यह सब स्वाभाविक परिणमन होता रहता है। संसार को षड्द्रव्यात्मक कहकर और काल स्वतन्त्र द्रव्य को मानकर इस विचार को और भी परिपुष्ट किया है। प्रमाण का स्वरूप-मन्थन करते हुए जैनाचार्यों ने सम्यग्ज्ञान को प्रमाण माना और उसे स्व-पर प्रकाशक कहकर अविसंवादी होना आवश्यक कहा। सन्निकर्ष को यहां साधकतमकरण न मानकर ज्ञान को ही साधकतमकरण माना है।जैन दर्शन प्रमाणसंप्लववादी है। वह वेद को अपौरुषेय न मानकर प्रमाण को स्वतः और परत: दोनों मानता है। उसने निश्चयात्मक सविकल्पकज्ञान को प्रत्यक्ष कहकर प्रत्यक्ष और परोक्ष की स्वतन्त्र अवधरणा दी है। यही चिन्तन उसकी विशिष्ट देन है। (१४) कलात्मक अवदान कला आत्मानुभूति का पर्यायार्थक शब्द है। इसका सम्बन्ध मूल प्रवृत्तियों की अभिव्यक्ति से है। इसलिए इसमें अध्यात्म का भी निर्झर झरता है और इसी Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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