Book Title: Sanskrutik Avdan
Author(s): Bhagchandra Jain
Publisher: Z_Bharatiya_Sanskruti_me_Jain_Dharma_ka_Aavdan_002591.pdf

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Page 18
________________ १८ उसके अनुवर्तक हैं और परिग्रह उसका फल है । परिग्रही वृत्ति व्यक्ति को हिंसक बना देती है। इस हिंसक वृत्ति से तभी विमुख हो सकता है व्यक्ति जब वह अपरिग्रह या परिग्रह परिमाणव्रत का पालन करे । क्षमा, मार्दव आदि दस धर्मों का पालन भी धर्म है। मनुष्य गिरगिट स्वभावी है, अनेक चित्त वाला है। क्रोधादि विकारों के कारण वह बहुत भूलें कर डालत है । क्रोध विभाव है, परदोषदर्शी है। क्षमा आत्मा का स्वभाव है। परपदार्थों मे कर्तृत्व बुद्धि से, मिथ्यादर्शन से क्रोध उत्पन्न होता है और क्षमा सम्यग्दर्शन से उत्पन्न होती है । पञ्चम गुणस्थानवर्ती अणुव्रती से लेकर नौंवे - दसवें गुणस्थान में महाव्रती के उत्तमक्षमा है पर नौंवे ग्रैवेयक तक पहुँचने वाले मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी के उत्तमक्षमा नहीं होती । मार्दवमानका विरोधी भाव माना है। दुःख अपमान में नहीं, मान की आकांक्षा में है। ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, समृद्धि, तप, आयु और बल के अभिमान से दूसरे को नीचे दिखाने का भाव पैदा होता है। इससे सत्य की खोज नहीं हो पाती। बिना विनय के भक्ति और आत्मसमर्पण कहाँ ? प्रतिक्रिया और प्रतिशोध को जन्म देने वाले अहङ्कार को समाप्त किये बिना जीवन का बदलना सम्भव नहीं है । इसी तरह माया, लोभ आदि विकार भावों को भी विनष्ट किये बिना परम शान्ति नहीं मिलती। 1 धर्म आत्मस्थिति का मार्ग है, आत्मनिरीक्षण का पथ है। ऋजुता आये बिना धर्म का मर्म पाया नहीं जा सकता । शौचधर्म में चरित्र विशुद्ध हो जाता है और अकषाय की स्थिति आ जाती है और लोभ चला जाता है। सत्य, संयम तप, त्याग, आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य आदि धर्म भी आध्यात्मिक साधना को जाग्रत करते रहते हैं और विचारों की पवित्रता को बनाये रखते हैं। इन धर्मों का पालन करने से संकल्प शक्ति का विकास होता है और साधक ध्यान साधना कर आत्मस्वरू के चिन्तन में डूबने लगता है। (८) रत्नत्रय की समन्वित साधना तीर्थङ्कर महावीर ने साधना की सफलता के लिए तीन कारणों का निर्देश किया है - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र, इन तीनों तत्त्वों को समवे रूप में रत्नत्रय कहा जाता है। दर्शन का अर्थ श्रद्धा अथवा व्यावहारिक परिभाष में आत्मानुभूति के लिये प्रयास कह सकते हैं। श्रद्धापूर्वक ज्ञान और चारित्र सम्यक् योग ही मोक्ष रूप साधना की सफलता में मूलभूत कारण है। मात्र ज्ञान अथवा चारित्र से मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। इसलिए इन तीनों की समन्वित For Private & Personal Use Only Jain Education International 2010_04 www.jainelibrary.org

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