Book Title: Sanskrutik Avdan
Author(s): Bhagchandra Jain
Publisher: Z_Bharatiya_Sanskruti_me_Jain_Dharma_ka_Aavdan_002591.pdf

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Page 20
________________ प्रोषधोपवास, भोगोपभोगपरिणाम तथा अतिथि संविभाग इन चार व्रतों का पालन करने से सामाजिकता का पालन होता है। श्रावक बड़ी महत्त्वपूर्ण अवस्था है। इसमें व्यक्ति इस अवस्था तक पहुँच जाता है कि वह उपदेश ग्रहण करने का पात्र बन सके। वह बारह व्रतों का पालन घर में रहकर करता है। व्रत पालन करने से धीरे-धीरे उसकी चित्तवृत्तियाँ विशुद्धता की ओर बढ़ती चली जाती है। आत्मा में इस आध्यात्मिक क्रमिक विकास को जैनधर्म में प्रतिमा कहा गया है। उनकी संख्या बारह है। उनमें प्रारम्भ के छह प्रतिमाधारी गृहस्थ कहलाते हैं और वे जघन्य श्रावक हैं। सात से नवमी प्रतिमाधारी को ब्रह्मचारी या वर्णी कहा जाता है। वे मध्यम श्रावक हैं तथा दशवीं और ग्यारहवीं प्रतिमा के धारक भिक्षुक कहलाते हैं और वे उत्कृष्ट श्रावक हैं। उनमें दशवी प्रतिमा तक साधक श्रावक गृहस्थावस्था में रहता है पर ग्यारहवीं प्रतिमा स्वीकार करने पर उसे गृहत्याग करना आवश्यक हो जाता है। उसके बाद वह परिपूर्ण निष्परिग्रही मुनि बन सकता है। जैन मुनि २८ मूल गुणों का पालन करता है --- पाँच महाव्रत, पाँच समितियाँ, पञ्चेन्द्रियविजय, छह आवश्यक, केश लुञ्चनता, अचेलकता, अस्नानता, भशैय्या, स्थिति भोजन, अदन्त धावन और एकभुक्ति। इन मूलगुणों के परिपालन से उसके मन में संवेग और वैराग्य की भावना प्रबलतर होती रहती है। वह क्षमादि दश धर्मों का पालन करता है और अनित्य, अशरण आदि बारह भावनाओं का अनुचिन्तन करता है, बाईस परीषहों को सहजतापूर्वक सहन करता है तथा बाह्य तपों और अन्तरंग तपों का पालन करता है। (९) स्वाध्याय जैन संस्कृति में स्वाध्याय को सर्वोत्तम तप माना गया है। वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मकथा के माध्यम से उसे किया जाता है। उसे धर्म में समाहित किया गया है। जैनागम ग्रन्थों में धर्म की उक्त चारों परिभाषाओं को एक स्थान पर भी एकत्रित किया गया है। आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में भी ये परिभाषायें बिखरी पड़ी हुई हैं। उनका सुन्दर सूत्रीकरण आचार्य कार्तिकेय ने किया है। जिसमें स्वाध्यान का रूप प्रतिबिम्बित हुआ है। धम्मो वत्थुसहावो खमादिभावो य दसविहो धम्मो। रयणत्तयं च धम्मो जीवाणं रक्खणं धम्मो।। (कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ४७८) Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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