Book Title: Sangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra Author(s): Chandrasuri, Yashodevsuri Publisher: ZZZ Unknown View full book textPage 2
________________ 2 ] बृहत्संग्रणीरत्नसूत्र हिन्दी [ भाषांतर की पूर्वभूमिका . अनुवादक मुनिश्रीके विषयमें प्रकाशककी ज्ञातव्य- . ' –पूर्वभूमिकाजैन समाजमें संग्रहणी नामक अति विख्यात ग्रन्थकी रचना बारहवीं सदीके महान आचार्य भगवंत श्रीमद् चन्द्रसूरिजीने, जो साधु-साध्वियाँ और गृहस्थ, आगमशास्त्रोंका अध्ययन न कर सकें अथवा तीव्र बुद्धि न हों, और संक्षेपमें जैन तत्त्वज्ञान और विराट् विश्वका ज्ञान प्राप्त करना हो तो एक ही ग्रन्थसे कर सकें, अनेकानेक विषयोंकी जानकारी प्राप्त हो, इसी कारण उपकारक बुद्धिसे आगममेंसे उपयोगी विषयोंको चुनचुनकर, प्राकृतभाषाकी गाथाओं द्वारा संकलन करके इस ग्रन्थकी रचना की है। यह ग्रन्थ जैनसंघमें इतना प्रिय हो गया था कि उसका अध्ययन सैकड़ों वर्षोंसे हजारों व्यक्ति / करते आएं, इसी कारण सैकड़ों प्रतियाँ आज जैन शानभंडारोंमें मिलती हैं / और उसकी सचित्र प्रतियाँ चौदहवीं सदीसे लेकर 20 वीं सदी तकमें सैकड़ोंकी संख्यामें उपलब्ध हैं। विशिष्ट प्रकारकी चित्रकला द्वारा निर्मित चित्रोंवाला मूर्धन्य ग्रन्थ जैन समाजमें प्रथम कल्पसूत्र है, जिसकी सुवर्णाक्षरी, रौप्याक्षरी बहुमूल्य कृतियाँ मिलती हैं और जैन भंडारोंमें सैकड़ोंकी संख्यामें प्राप्त हैं। ऐसी ही सचित्र प्रतियाँ जैन भंडारमें जो दूसरी गिनी जाती हो तो वह संग्रहणी की है। इस संग्रहणीकी मात्र संक्षिप्त शब्दार्थकी प्रतियाँ (टबा) थोडी कुछ उपलब्ध हैं, लेकिन विस्तृत भाषांतरवाली एक भी प्रति मुझे नहीं मिली और इस युगमें विस्तृत भाषांतरवाली तो एक भी मुद्रित पुस्तक न थी। मुनिजीको बड़ा आश्चर्यजनक दुःख हुआ और स्वपर शान के लिए एक महान ग्रन्थके अनुवादका भगीरथ कार्य करनेका निर्णय किया, गुरु आदेश लेकर अनुवाद किया। यह अनुवाद कब किया ? उस समय कितनी उम्र थी? छपा कब ? यह सब घटना रोमहर्षक, और प्रेरक है। इसलिए कई लोगके आग्रहसे यह घटना यहाँ प्रस्तुत करते हैं, जिससे मुनिजीके एक अकल्पनीय साहसकी अनुमोदना होगी / विद्यार्थियोंका ऐसा काम करनेके लिए उत्साह बढ़ेगा। ___ संग्रहणी ग्रन्थका गुजराती भाषांतर मुनिजीने दीक्षाके पहले ही वर्षमें अर्थात् संवत 1987 में, जब उम्र सिर्फ 15 वर्षकी थी तब महुवा (सौराष्ट्र )में शुरु किया, दो वर्ष बंद रहा, फिर शुरु किया और सं. 1991 के अंतमें पूर्ण किया / पूरा भाषांतर करनेमें करीब दो वर्ष लगे / 19 वर्षकी उम्रमें समाप्त किया / लेखकके विद्वान् गुरुदेव, तत्त्वज्ञ पूज्य मुनि श्री धर्मविजयजी महाराजने संशोधन कर दिया और पूज्य प्रवर उपाध्यायजी श्री प्रतापविजयजी महाराजने भी सिंहावलोकन कर लिया / अन्तमें तीनों गुरुदेवनेPage Navigation
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