Book Title: Sammatitarka Maharnavatarika
Author(s): Vijaydarshansuri
Publisher: Jainmarg Prabhavaka Sabha Madras

View full book text
Previous | Next

Page 8
________________ वैशेषिक अने नैयायिक दर्शनकारोए आ षधी वस्तुओना उकेल माटे अमापशक्तिसंपन ईश्वर, आत्मव्यापकतावाद विगेरेनो आश्रय लइ तत्वनी व्यवस्था घटावी. कोइए योगथी, कोइए भक्तिथी तो कोइए 'ब्रह्म सद् जगन्मिध्या' विगेरेथी आत्मसंतोष मान्यो. आम भारतमा कोइए कोइनें मृत्यु देखो जगत्नी विचित्रताना उकेलमा समग्रजीवनकाळ परोल्यो. कोईए पृथ्वी पाणी आकाश विगेरे तत्त्वोने देखी तेनी गवेषणा आरंभी तो कोइए आपणे फ्यांथी आव्या अने क्यों जइशं तेनी विचारणामां वर्षों काढी जुदा जुदा उकेलो आण्या पण आ बधा पाछळ पृथकरण बुद्धि न होवाने लइ आ बधा उकेलो वादो केटलीकवार विवादमा परिणम्या अने तेने लइने दरेकनी साची बात पण एकबीजाना खंडनमंडनमा उत्तरी अंगप्रत्यंग परिष्कृत भारतना तत्त्ववादपुरुषने कोइए अंगथी तो कोइए प्रत्यंगथी पोताना तवा परिपूर्ण मान्यो. जैनदर्शने तत्वगवेषक बुद्धिथी अटवाता सर्वदर्शनोने अनेकांतदृष्टिथी पोतानामा समावी लीधां अने क्षणिकवाद, नित्यवाद विगेरे बधा वादो आपेक्षिक बुद्धिथी विचारवामां आवे तो कोइ खोटा नथी. हाथी थांभला जेवो छे. सुपडा जेवो छे के दोरडा जेको छ कहेनाग अंधोने सर्वतः हाथीने अवलोकनार कहे के पगथी हाथी थांभला जेवो छ कानथी सुपडा जेवो छ अने पुंछडाथी दोरडा जेको छै तेम जगत्ना तमाम वैभयो अने पर्यायो क्षणनिश्वर छे मोह न धरशो. तेमज तेम पण न मानशो के कंठी भागी एटले सोनुं जतुं रह्यं. तमाएं बाळपण, युवापण वृद्धपण अने मनुष्यपणुं भले जाय आवे पण तमारो आत्मा तो अमर अने नित्य छे तेनो निस्तार करवो के अधःपात करवो ते तमारा हाथनी वात छे. जैनदर्शननी आ सर्वमुखी दृष्टि ते तेनो अनेकांतवाद छ, स्यावाद छे. आ स्याद्वाददृष्टिने लइ सर्वदर्शनो जैनदर्शनमां समाय छे अने सर्वदर्शनोमांथी स्याद्वाददृष्टि जैनदर्शन अनुरूप तत्व शोधे छे. आम भारतमां तमाम दर्शनो एकदृष्टि अने सर्वदर्शनोने समन्वय करनार जैनदर्शन सर्वदृष्टि-अनेकांतदृष्टि छे. कोइ पण पदार्थने तेनी बधी संभवती बाजुने तपासवी ते अनेकांतदृष्टि छे. आ अनेकांतदृष्टिनी साची समज नय, सप्तभंगी, ज्ञान, अने ज्ञेयनी पुरी समज आवे तो ज आवी शके तेम छे. आ नय, सप्तभंगी, ज्ञान अने ज्ञेयनी पुरी समज आगम ग्रंथोमा ठेर ठेर छूटी छटी अनेक ठेकाणे आपवामां आवी छे. छतां पण आ संबंधी व्यवस्थित विचारणा करनार जैन दर्शनमा कोइ पण स्वतंत्र के प्रथम ग्रंथ होय तो आ सम्मतितर्क ग्रंथ छे. जैनदर्शनना आंतर तत्वने कसोटी उपर चडावी निर्मळ सुवर्ण रुपे जगतना समग्र तत्त्ववादो आगळ रजु करनार तेनो अनेकांतवादस्यादवाद छे. आ अनेकांतवादने सफळ रीते पू. आ. सिद्धसेनदिवाकरसूरिए आ ग्रंथमां रजु कर्यों छे, जेने लइ आ ग्रंथ अने तेना कर्ता पू. सिद्धसेनदिवाकरसरि धर्मशास्त्रप्रभावक मनाया छे. "Aho Shrutgyanam"

Loading...

Page Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 ... 556