Book Title: Sammatitarka Maharnavatarika
Author(s): Vijaydarshansuri
Publisher: Jainmarg Prabhavaka Sabha Madras

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Page 15
________________ वृद्धवादी भरुच आव्या. राजसभायां सिद्धसेन साथै विद्वानोनी मध्यस्थतामां वाद आरंभायो त्यां पण सिद्धसेन हार्या. एकवचनी सिद्धसेन वृद्धवादीना शिष्य थया. अने त्यां तेमनुं नाम कुमुदचंद्र पाडयुं, विद्वान् कुमुदचंद्र थोडाज वखतमां जैनशैलिना अने जैनशास्त्रोना पारगामी था. गुरुए तेमने आचार्यपदे स्थाप्या. अने फरी तेमनुं नाम सिद्धसेन स्थाप्युं. आ पछी सिद्धसेनसूरि परिवार सह विहरखा लाग्या. एकवार सिद्धसेन दिवाकरसूरि अवंतीमां पधार्या. विक्रमादित्ये उत्सवपूर्वक पधारता सूरिनी परीक्षा करवा मनमां नमस्कार कर्या, पण हाथ जोडथा विना ते सामे आवी उभो . गुरुए धर्मलाभ उचार्यो. विक्रम राजा बोल्यो 'महाराज ! विना नमस्कारे धर्मलाभ. सूरि क ' धर्मलाभ रत्न करतां अधिक छे. अर्थीनेज ते अपाय छे. तमे मनथी वंदना करी तेथीज तमने धर्मलाभ आप्यो छे. ' राजा आश्चर्य पाम्यो अने तेणे गुरुने क्रोड सोना महोर आपवा मांडी. [धर्मलाभ इति प्रोक्ते दुरादुद्धृष्टपाणये । सूरये सिद्धसेनाय ददौ कोटिं नराधिपः ॥ ] परंतु कंचनकामिनीना त्यागी गुरुए न लीधी. राजाए आपेलुं दान पाहुं न लेवाय तेम कही ते धन तेणे जिर्णोद्धारमां खच्युं. एक वखत सिद्धसेन दिवाकरसूरि चित्तोड तरफ विचरता हता त्यां एक थांभलो जोयो. आ थभलो नहोतो पाषाणनो, नहोतो लाकडानो के नहोतो माटीनो. सूरिए बारीकाइथी जोयुं तो ते को लेपथी बनावेलो लाग्यो. सुरिजीए बुद्धिबळथी तेनी वनस्पतिओ पारखी अने विरुद्धऔषधिओ द्वारा काणुं पडाव्यं तो ते थांभलाना पोलाणमां सुंदर हस्तलिखित प्रतोनो सारो समुह देखायो आचार्य महाराजे एक मत हाथमां लीधी. थोडुं वांच्युं त्यां प्रत अदृश्यपणे झुंटवार अने भानुं छिद्र पुराह गयुं. सूरि विचारमां पडचा अने मान्युं के दैवीसंकेत आमां आगळ वानी मा पाडे छे. पण तेमणे थोडं वांच्युं तेमां तेमने सुवर्णसिद्धि अने सर्षपमांथी सैन्य बनाववानी ए वे विद्या याद रही गह. रिमहाराजे चित्तोडथी विहार आगळ आरंभ्यो अने ते कुर्मारपुर नगरमां पधार्या. त्यांना राजा देवपाळे सुंदर सामैयुं कयुं. राजा परम गुरुभक्त बन्यो. एक वखत कामरु देशना राजा विजयवर्मा कुर्मारपुर ने घेरी लीधुं देवपाळ पासेधान्य संपत्ति अने लक्कर खुट्युं. क्यारे कुर्मारपुर पडशे तेनो भरोसो न रह्यो एटले आंसु साथे राजा सूरिमहाराजने पगे लागीने कहेवा लाग्यो 'महाराज ! तीडोनां टोळां जेवुं शत्रु सैन्य मारा नगरनो नाश करशे तेम लागे छे. हुं शत्रुने यहींची शकुं तेम नथी.' गुरुए आश्वासन आप्युं अने सुवर्णसिद्धिथी द्रव्य अने सर्वपविद्याथी सैन्य सर्जी विजयवर्माने तेने देशे पाछो मोकल्यो. "Aho Shrutgyanam"

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