Book Title: Samaya Sara
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 15
________________ समयसार जो ये गुणस्थान हैं वे मोहकर्मके उदयसे होते हैं इस प्रकार वर्णन किये गये हैं। जो निरंतर अचेतन कहे गये हैं वे जीव कैसे हो सकते हैं? ।।६८ ।। इस प्रकार जीवाजीवाधिकार पूर्ण हुआ। *** कर्तृकर्माधिकारः आगे कहते हैं कि जब तक यह जीव, आत्मा और आस्रवकी विशेषताको नहीं जानता है तब तक अज्ञानी हुआ आस्रवमें लीन रहता हुआ कर्मबंध करता है -- जाव ण वेदि विसेसंतरं तु आदाऽसवाण दोण्हं पि। अण्णाणी तावदु सो, कोधादिसु वट्टदे जीवो।।६९।। कोधादिसु वटुंतस्स, तस्स कम्मस्स संचओ होदी। जीवस्सेवं बंधो, भणिदो खलु सव्वदरसीहिं।।७०।। यह जीव जबतक आत्मा और आस्रव इन दोनोंमें विशेष अंतर नहीं जानता है तब तक वह अज्ञानी हुआ क्रोधादि आस्रवोंमें प्रवृत्त रहता है और क्रोधादि आस्रवोंमें प्रवृत्त रहनेवाले जीवके कर्मोंका संचय होता है। इस प्रकार जीवके कर्मोंका बंध सर्वज्ञ जिनेंद्रदेवने निश्चयसे कहा है।।६९-७० ।। आगे, इस कर्ताकर्मकी प्रवृत्तिका अभाव कब होता है? इस प्रश्नका उत्तर कहते हैं -- जइया इमेण जीवेण, अप्पणो आसवाण य तहेव। णादं होदि विसेसंतरं तु तइया ण बंधो से।।७१।। जिस समय इस जीवको आत्मा तथा कर्मोंका विशेष अंतर ज्ञात हो जाता है उसी समय उसके बंध नहीं होता है।७१।। आगे पूछते हैं कि ज्ञानभावसे ही बंधका अभाव किस प्रकार हो जाता है? इसका उत्तर कहते णादण आसवाणं, असुचित्तं च विवरीयभावं च। दुक्खस्स कारणं ति य, तदो णियत्तिं कुणदि जीवो।।७२।। आस्रवोंका अशुचिपना और विपरीतपना तथा ये दुःखके कारण हैं ऐसा जानकर यह जीव उनसे निवृत्ति करता है।।७२।।

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