Book Title: Samaya Sara
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 66
________________ ११२ कुन्दकुन्द-भारती आत्मा करता है तो लोक सामान्य और मुनियोंका एक ही सिद्धांत हो जावे, उनमें कुछ भी विशेषता न दिखे, क्योंकि लोकसामान्यके मतसे विष्णु करता है और मुनियोंके मतसे आत्मा करता है। इस तरहकी मान्यता होनेपर लोक सामान्य और युक्ति दोनोंको ही मोक्ष नहीं दिखेगा, क्योंकि दोनों ही देव मनुष्य असुर सहित लोकोंको निरंतर करते रहते हैं। भावार्थ -- जो आत्माको कर्ता मानते हैं वे मुनि होनेपर भी लौकिक जनके समान हैं, क्योंकि लौकिक जन ईश्वरको कर्ता मानते हैं और मुनिजन आत्माको कर्ता मानते हैं। इस प्रकार दोनोंको ही मोक्षका अभाव प्राप्त होता है।।३२१-३२३ ।। आगे निश्चयनय से आत्माका पुद्गल द्रव्यके साथ कर्तृ-कर्म संबंध नहीं है तब उनका कर्ता कैसे होगा? यह कहते है -- ववहारभासिएण' उ', परदव्वं मम भणंति अविदियत्था। जाणंति णिच्चयेण उ, ण य मह परमाणुमिच्चमवि किंचि।।३२४।। जह कोवि णरो जंपई, अम्हं गामविसयणयररटुं। ण य होंति ताणि तस्स उ, भणइ य मोहेण सो अप्पा।।३२५ ।। एमेव मिच्छदिट्ठी, णाणी णिस्संसयं हवइ एसो। जो परदव्वं मम इदि, जाणतो अप्पयं कुणइ।। ३२६।। तम्हा ण मेत्ति णिच्चा २, २२दोण्हं वि एयाण कत्तविवसायं। परदव्वे जाणंतो, जाणिज्जो दिट्ठिरहियाणं ।।३२७ ।। पदार्थके यथार्थ स्वरूपको न जाननेवाले पुरुष व्यवहारनयके वचनसे कहते हैं कि 'परद्रव्य मेरा है' और जो निश्चय नयसे पदार्थोंको जानते हैं वे कहते हैं कि 'परमाणु मात्र भी कोई परद्रव्य मेरा नहीं है।' तहाँ व्यवहार नयका कहना ऐसा है कि जैसे कोई पुरुष कहता है कि 'हमारा ग्राम है, देश है, नगर है और राष्ट्र है', वास्तवमें विचार किया जाय तो ग्रामादिक उसके नहीं हैं, वह आत्मा मोहसे ही मेरा मेरा कहता है। इस प्रकार जो परद्रव्यको मेरा है ऐसा जानता हुआ उसे आत्ममय करता है वह ज्ञानी निःसंदेह मिथ्यादृष्टि है। इसलिए ज्ञानी 'परद्रव्य मेरा नहीं है' ऐसा जानकर परद्रव्यमें इन लोक साधारण तथा मुनियों -- दोनोंके ही कर्तृव्यवसायको जानता हुआ जानता है कि ये सम्यग्दर्शनसे रहित हैं।।३२४-३२७ ।। आगे जीवके मिथ्यात्वभाव है उसका कर्ता कौन है? यह युक्तिसे सिद्ध करते हैं -- १..... भासिदेण। २. दु। ३. विदिदच्छा। ४. दु। ५. मित्त मम। ज. वृ. ।६. जपदि। ७. अम्हाणं ८..... पुररहुँ । ९. हुंति। १०. दु। ११. भणदि। १२. णच्चा। १३. दुण्हं एदाण कत्तिववसाओ। १४. दिट्ठिरहिदाणं। ज. वृ.।

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