Book Title: Samaya Sara
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 13
________________ समयसार गंधरसफासरूवा, देहो संठाणमाइया जे य। सव्वे ववहारस्स य, णिच्छयदण्हू ववदिसंति।।६०।। जैसे मार्गमें लुटते पुरुषको देखकर लोग कहने लगते हैं कि यह मार्ग लुटता है। यथार्थमें विचार किया जाय तो कोई मार्ग नहीं लुटता। उसमें जानेवाले पुरुष ही लुटते हैं। वैसे ही जीवमें कर्मों और नोकर्मोंका वर्ण देखकर 'जीवका यह वर्ण है ऐसा व्यवहारनय से जिनदेवने कहा है। इसी प्रकार गंध, रस, स्पर्श, रूप, शरीर, संस्थान आदि जो कुछ हैं वे सब व्यवहार नयसे जीवके हैं ऐसा निश्चयके देखनेवाले कहते हैं ।।५८-६० ।। आगे वर्णादिके साथ जीवका तादात्म्य क्यों नहीं है? इसका उत्तर कहते हैं -- तत्थभवे जीवाणं, संसारत्थाण होंति वण्णादी। संसारपमुक्काणं, णत्थि हु वण्णादओ केई।।६१।। वर्णादिक संसारमें स्थित जीवोंके उस संसारी दशामें होते हैं। संसारके छूटे हुए जीवोंके निश्चयसे वर्णादिक कुछ भी नहीं हैं।। भावार्थ -- यदि वर्णादिके साथ जीवका तादात्म्य संबंध रहता तो मुक्त अवस्थामें भी उसका सद्भाव पाया जाना चाहिए, परंतु पाया नहीं जाता। इससे सिद्ध है कि जीवके साथ वर्णादिका तादात्म्य संबंध नहीं है, किंतु संयोग संबंध है जो कि पृथक् सिद्ध दो वस्तुमें होता है।।६१।। आगे वर्णादिके साथ जीवका तादात्म्य संबंध मानने में अन्य दोष प्रकट करते हैं -- जीवो चेव हि एदे, सव्वे भावात्ति मण्णसे जदि हि। जीवस्साजीवस्स य, णत्थि विसेसो दु दे कोई।।६२।। यदि तू ऐसा मानता है कि ये वर्णादिक भाव सभी जीव हैं तो तेरे मतमें जीव और अजीवका कुछ भेद नहीं रहेगा।।६२।। आगे संसारअवस्थामें ही जीवका वर्णादिके साथ तादात्म्य है ऐसा अभिप्राय होनेपर भी यही दोष आता है यह कहते हैं -- जदि संसारत्थाणं, जीवाणं तुज्झ होंति वण्णादी। तम्हा संसारत्था, जीवा रूवित्तमावण्णा।।६३।। एवं पुग्गलदव्वं, जीवो तह लक्खणेण मूढमदी। णिव्वाणमुवगदो वि य, जीवत्तं पुग्गलो पत्तो।।६४।। १. एवं रसगंधफासा संठाणादीय जे समुद्दिठ्ठा ज. वृ.। २. दु ज. वृ. ।

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