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श्रीसज्जनचित्तबल्लभ सटीक ।
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दृाश्वः पुनरागमिष्यतियमो नज्ञाय तेतत्वतस्तस्मादात्महितं कुरुत्वम चिराद्धम्मैजिनेंद्रोदितम् ॥ १४ ॥
॥ भाषाटीका ॥
हे श्रात्मा तू औरों के मरण को मरण नहीं गिनता है । इसीसे अपने को सदा अमर विचारता है। इन इंद्रिय समूहरूप हाथीका दवायाहुवा भ्रमता फिरता है ठीक यह भी नहीं जानता है कि दुर्निवारकाल कव ( कल या परसों आदि कब) अवश्य श्रावेगा । इस लिये अपना हितकारी सर्वज्ञ केवली का कहा हुआ धर्म तू शीघ्र ही धारण कर ॥ भावार्थ जब काल - चानक जावेगा तब कुछ भी करतव्य काम न आ वेगा इससे पहिले से ही बीतराग धर्मको धारणकर १४ सौख्यंवाञ्छसिकिन्त्वयागतभवे दानंतपोवाकृतं नोचेत्त्वंकिमिहैवमे वलभसेलब्धंतदत्रागतं । धान्यंकिं लभतेविनापिवपनं लोकेकुटुम्बीज नो देहे कीटक भक्षितेक्षसदृशेमोहंवृ थामाकृथा ।। १५ ।।
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