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श्रीसज्जनचित्तवल्लभ सटीक : २३ यतिजनैस्तद्भुज्यतेऽत्यादरात् । मि क्षोभाटकसम सन्निभतनोः पुष्टि थामाकृथाः पूर्णेकिंदिवसावधौक्षण मपिस्थातुंयमोदास्यति ॥१६॥
॥ भापाटीका ॥ हे भिक्षुक ! (परायेघर भोजन करनेवाला) यदि भोजन तेरे मोलका लिया होता तो स्वादिष्ट न होने पर तू क्रोध भी गृहस्थ दातार पर करता तो फयत्ता अर्थात् शोभादेता । और भिक्षा में तो जैसा भोजन सरस नीरस क्षार मीठा ठंडागर्म जो गृहस्थ ने अपने लिये बनवाया और उसमें से पुण्यहेतु तुझे भी दिया तो तुझे प्रेमसे खाना चाहिये जिससे गृहस्थ का चित्त न पीड़े। क्योंकि जोकुछ भिक्षा में मिलता हेसाधुजन उसको अत्यन्त आदर पूर्वक खाते हैं। इस भाड़े के | घर समान शरीर को वृथा पुष्टमत कर कारण कि जब श्रायु के दिनों की अवधि पूरी हो जावेगी तब क्या काल तुझे ठहरने देवेगा? भावार्थ श्रायु पूर्ण होतेही इस शरीर से श्रात्मा अलग हो परलोक जायेगा। फिर इससे अधिक प्रेमकिसकाम आयेगा इसलिये शरीर से अ.
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