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श्रीसज्जनचित्तवल्लभ सटीक। तामसवृत्तितःकदसनात किंतप्यसेऽ हर्निशम् श्रेयार्थकिलसह्यतेमुनिवरे बांधाक्षुधायुद्भवाः॥१७॥
॥ भापाटीका ॥ हे भिक्षुक हे मुनि ! जिस समय मै तू हाथ में छोटा पात्र ( कमंडल ) लेकर भिना भोजनके अर्थ औरों के (गृहस्थों के ) घरों में जाताहै। तिसकालमें तुझे | मान अपमानसे क्या ( गृहस्थ जो अपनी इच्छा से सरस नीरस भोजन देवे सो ग्रहण कर ) दिनरात्रि तापस वृत्ति और अरोचक ( प्रकृति विरुद्द) भोजनों से क्यों दुखी होता है ? देख! अपने कल्याणके अथीं (चाहनेवाले ) महामुनि क्षुधा पिपासादि ( भूख प्यास आदि) से उपजी बाधाको समताभावसे (सं. क्लेश रहित परणामों से ) सहते हैं अर्थात् परीपहको | जीतते हैं। सो तुझे घबराना उचित नहींह ॥ १७॥
एकाकीविहरत्यनस्थितवलीयदों यथास्वेच्छया योपामध्य रतस्तथा त्वमपिभो त्यक्त्वात्मयूथंयते । त