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करता है ।। २१॥
२६ श्रीसज्जनचित्तबल्लभ सटीक। तेरीबुद्धि क्योंकर भरपूर होरही है ? बड़े खेदका विष |य है कि श्रीगुरु का उपदेश तेरे चित्त में प्रवेश नहीं
बेतालाकृतिमर्द्धदग्धमृतकंदृष्ट्वाभव न्तयते यासांनास्तिभयंत्वयासमम होजल्पन्तितास्तत्पुनः। राक्षस्योभु वनेभवन्ति वनितामामागताभक्षि तुं मत्वैवंप्रपलाप्यतांमृतिभयात्वंत त्रमास्थाःक्षणं ॥ २२॥
॥ भाषाटीका। हेमुनि ! जिन तरुण स्त्रियोंको तेरा प्रेतके श्राकार अधजले मुर्दावत भयंकर कुरूप देखकर भी भय नहीं होता और तेरेसाथ प्रेम पूर्वक बचनालाप करती हैं सो स्त्रियां संसार में महा भयावनी राक्षसी हैं तिनको देखकर तू अपने मनमें ऐसा विचारकर किये मायाविनी मेरे खानेको(नाशकरने को ) आईहै ऐसा मनमें दृढ़ निश्चयकर मरनके भयसे तिनकेसन्मुखसे शीघ्र ही भाग तहां क्षणमात्र मत ठहर नहीं तोवे तेरा चारित्ररूप धन और ज्ञानरूप प्राण हरलेवेगी ऐसानिश्चय जान ॥ २२॥
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