Book Title: Rishabhdev Ek Parishilan Author(s): Devendramuni Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra View full book textPage 8
________________ > डाक्टर स्टीवेन्सन,' और जयचन्द्र विद्यालंकार " प्रभृति अन्य अनेक " चिन्तकों का भी यही अभिमत रहा 1 भगवान् ऋषभदेव के व्यक्तित्व और कृतित्व का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत ग्रन्थ में दिया गया है । मेरा स्वयं का विचार और भी अधिक विस्तार से अन्वेषणाप्रधान लिखने का था किन्तु समयाभाव और साधनाभाव के कारण वह सम्भव नहीं हो सका, जो कुछ भी लिख गया हूँ, वह पाठकों के सामने है | चन्दन बाला श्रमणी संघ की अध्यक्षा, परम विदुषी स्वर्गीया महासती श्री सोहन कुँवर जी म० को मैं भुला नहीं सकता, उनके त्याग - वैराग्यपूर्ण पावन प्रवचन को श्रवण कर मैंने सद्गुरुवर्य, गम्भीर तत्त्वचिन्तक श्री पुष्कर मुनिजी म० के पास जैनेन्द्री दीक्षा ग्रहण की। और इस प्रकार वे मेरे जीवन महल के निर्माण में नींव की ईंट के रूप में रही हैं। उनकी आद्य प्रेरणा से ही प्रस्तुत ग्रन्थ का प्रणयन हुआ है । परम श्रद्ध ेय सद्गुरुवयं के प्रति किन शब्दों में आभार प्रदर्शित करू, यह मुझे नहीं सूझ रहा है । जो कुछ भी इसमें श्रेष्ठता है वह उन्हीं के दिशा-दर्शन और असीम कृपा का प्रतिफल है । मेरी विनम्र प्रार्थना को सन्मान देकर श्रद्धय उपाध्याय कविरत्न श्री अमर चन्द्र जी म० ने स्वस्थ न होने पर भी महत्त्वपूर्ण प्रस्तावना लिख कर ग्रन्थ की श्रीवृद्धि की है और साथ ही पुस्तक के संशोधन, एवं परिमार्जन में जिस आत्मीय भाव से मुझे अनुगृहीत किया है, उसे व्यक्त करने के लिए उपयुक्त शब्द मेरे पास नहीं हैं । स्नेहमूर्ति श्री हीरामुनि जी, साहित्यरत्न, शास्त्री गणेश मुनि जी, जिनेन्द्र मुनि, रमेश मुनि और राजेन्द्र मुनि प्रभृति मुनि - मण्डल का स्नेहास्पद व्यवहार, लेखन कार्य में सहायक रहा है । ज्ञात और अज्ञात रूप में जिन महानुभावों का तथा ग्रन्थों का सहयोग लिया गया है, उन सभी के प्रति हार्दिक आभार अभिव्यक्त करता हूँ, और भविष्य में उन सभी के मधुर सहयोग की अभिलाषा रखता हूँ । प्राचार्य धर्मसिंह जैन धर्म स्थानक छीपापोल अमदाबाद - १ दि० ३-४-६७ आदिनाथ जयन्ती Jain Education International - देवेन्द्र मुनि ६. कल्पसूत्र की भूमिका - डा० स्टीवेन्सन १०. ११. भारतीय इतिहास की रूपरेखा - जयचन्द्र विद्यालंकार पृ० ३४८ (क) जैन साहित्य का इतिहास -- पूर्वपीठिका पृ० १०८ (ख) हिन्दी विश्वकोष भाग० ३ पृ० ४४४ For Private & Personal Use Only -- www.jainelibrary.orgPage Navigation
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