Book Title: Rishabhdev Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 11
________________ ( १० ) -- शून्य जीवन | पिता-पुत्र, भाई-बहिन, पति-पत्नी - जैसा कुछ भी लोक व्यवहार नहीं, कोई भी मर्यादा नहीं । साथ रहने वाली नारी को हम भले ही आज की शिष्ट भाषा में पत्नी कह दें, परन्तु सचाई तो यह है कि वह उस युग में एकमात्र नारी थी, स्त्री थी, और कुछ नहीं । स्त्री केवल देह है और पत्नी इससे कुछ ऊपर । पति-पत्नी दो शरीर नहीं हैं, जो वासना के माध्यम से एक दूसरे के साथ हो लेते हैं । वह एक सामाजिक एवं नैतिक भाव है, जो कर्तव्य की स्वर्णरेखाओं से मर्यादाबद्ध है । और यह सब उस आदि युग में कहाँ था ? वन की सभ्यता | अकेला व्यक्तित्व ! भूख लगी तो इधर-उधर गया, कन्द-मूल फल खा आया । प्यास लगी तो झरनों का बहता पानी पी आया । अन्य किसी के लिए न लाना और न ले जाना । न भविष्य के लिए ही कुछ संग्रह । अतीत और अनागत से कट कर केवल वर्तमान में आबद्ध | अपने ही पेट की क्षुधा पिपासा से विरा केवल व्यक्तिनिष्ठ जीवन ! प्रकृति पर आश्रित, वृक्षों से परिपोषित ! कर्तृत्व नहीं, केवल भोक्तृत्व ! श्रम नहीं, पुरुषार्थं नहीं । न अपने पैरों खड़ा होना, और न अपने हाथों कुछ करना । मनुष्य के शरीर में नीचे क्षुधातुरं पेट और ऊपर खाने वाला मुख । बीच हाथ पैरों का कोई खास काम नहीं, उत्पादक के रूप में । यह चित्र है, भगवान् ऋषभदेव से पूर्व मानव में सभ्यता का । भगवान् ऋषभदेव के युग में यह वन-सभ्यता बिखर रही थी । जनसंख्या बढ़ने लगी । उपभोक्ता अधिक होते जा रहे थे, परन्तु उनकी तुलना में उपभोगसामग्री अल्प | ऐसी स्थिति में संघर्ष अवश्यम्भावी था, और वह हुआ भी । क्षुधातुर जनता वृक्षों के बँटवारे के लिए लड़ने लगी । सब ओर आपाधापी मच गई। भगवान् ऋषभदेव ने उक्त विषम स्थिति में अभावग्रस्त जनता का योग्य नेतृत्व किया । उन्होंने घोषणा की -- अकर्म भूमि का युग समाप्त हो रहा है, अब जनसमाज को कर्मभूमि युग का स्वागत करना चाहिए । प्रकृति रिक्त नहीं है । अब भी उसके अन्तर में अक्षय भण्डार छिपा पड़ा है । पुरुष हो, पुरुषार्थं करो । अपने मन मस्तिष्क से सोचो- विचारो और उसे हाथों से मूर्तरूप दो । श्रम में ही श्री है, अन्यत्र नहीं। एक मुख है खाने वाला, तो हाथ दो हैं खिलाने वाले । भूखों मरने का प्रश्न ही कहाँ है ? अपने श्रम के बल पर अभाव को भाव से भर दो। भगवान् ऋषभदेव ने कृषि का सूत्रपात किया । अनेकानेक शिल्पों की अवतारणा की । कृषि और उद्योग में वह अद्भुत सामंजस्य स्थापित किया कि धरती पर स्वर्ग उतर आया । कर्मयोग की वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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