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प्रकाशकीय
आर्यसंस्कृति के आदिपुरुष भगवान ऋषभदेव की जीवन-गाथा कला और संस्कृति, शिक्षा और साहित्य, धर्म और राजनीति का आदि-स्रोत है । आर्य संस्कृति का वह महाप्राण व्यक्तित्व दो युगों का सन्धि-काल है, जब अकर्म से जीवन में जड़ता छा रही थी और भोगासक्ति ने जीवन को निःसत्व बना रखा था, तब ऋषभदेव कर्म-युग के आदिसूत्रधार बने, अकर्म को कर्म की ओर प्रेरित किया, भोग को योग से परिष्कृत करने की कला सिखलाई । पुरुषार्थ जगा, कला का विकास हुआ, समाज की रचना हुई, राज्य शासन का निर्माण हुआ, और धर्म एवं संस्कृति की पावन रेखाएँ आकार पाने लगीं।
जैन, बौद्ध और वैदिक-तीनों परम्पराओं में भगवान ऋषभदेव की महिमा के स्वर प्रतिध्वनित होते सुनाई देते हैं और यह प्रतिध्वनि आर्यसंस्कृति की मौलिक एकता का अक्षय चिन्ह है । भले ही ऋषभदेव के विराट व्यक्तित्व को विभिन्न परम्पराओं ने विभिन्न दृष्टियों से देखा हो, किन्तु उससे उनको महानता और सर्वव्यापकता में कोई अन्तर नहीं आता। विभिन्न दिशाओं में बसने वाले यदि हिमालय या सुमेरु के विभिन्न भागों को देखकर अपनी-अपनी दृष्टि से उसका वर्णन करें तो उससे हिमालय या सुमेरु को महान सत्ता में कोई अन्तर नहीं पड़ता, बल्कि उसकी सार्वदेशिकता का ही प्रमाण मिलता है।
आर्य संस्कृति के उस मूल पुरुष को, उनके जीवन-स्रोत की विभिन्न धाराओं में अवगाहन कर गहराई से समझने-परखने की आज अत्यन्त आवश्यकता
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