Book Title: Ratnatraya Part 02
Author(s): Surendra Varni
Publisher: Surendra Varni

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Page 12
________________ जो पुरुष जीव के स्वरूप से देह को तत्त्वतः भिन्न जानकर आत्मा की सेवा करता है उसकी बारह भावना भाना सार्थक है । तृतीय भाग में बारह भावनाओं, श्रावक धर्म व मुनि धर्म का वर्णन करने के बाद वर्णी जी ने स्वयं को चारित्र धारण करने की प्रेरणा देते हुये लिखा है — औरों के इतिहास बहुत पढ़े हमने, औरों के इतिहास बहुत पढ़े हमने । आगे भी पढ़ते जायेंगे, पर वे हमारे किस काम में आयेंगे || अव मात्र पढ़ने की जरूरत नहीं, करने की जरूरत है । सम्यक्चारित्र धारण कर स्वयं का इतिहास स्वयं को बनाना होगा । देखो, अपनी जिम्मेदारी अपनी आत्मा पर ही है। किसी का कोई दूसरा जिम्मेदार नहीं । दूसरे लोग जिनको हम अपना मित्र व बन्धु समझते हैं, वे लोग तो कषाय के बढ़ाने और कषाय पर चढ़ाने में ही उद्यम किया करते हैं। वीतराग भाव में लगाने का उद्यम करने-कराने में कोई निमित्त हैं तो देव, शास्त्र, गुरु । पर - पदार्थ में उपयोग लगाना अपना संसार परिभ्रमण बढ़ाना है । दो दिन की ये माया रानी, क्षण-क्षण होत विरानी | गणिका से भी अधिक सयानी, क्या मन में ललचाना || इक दिन यह माया खा लोगे, बट्टे में पापी बन लोगे । नरकवास के दुःख भोगोगे, क्लेश जहाँ हैं नाना ।। जब यह जीव देह से भिन्न आत्मा का सच्चा स्वरूप जाने माने और आचरण करें, तब ही उसके संसार का परिभ्रमण समाप्त होगा और वह अनन्तकाल के लिए अनन्तसुखी होगा। यदि आपके मन में यह जिज्ञासा हुई है, ऐसा संकल्प किया है कि मुझे तो संसार के दुःखों से छूटना है तो इनसे छुटकारे का जो उपाय है 'सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र', उसे धारण करो और सदा अपने शुद्ध स्वरूप में रमण करो। xi

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