Book Title: Ratnatraya Part 02
Author(s): Surendra Varni
Publisher: Surendra Varni

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Page 11
________________ मुक्ति क्यों नहीं मिली? हम क्यों भटक रहे हैं? क्योंकि हमने एक बार भी सम्यग्ज्ञान का प्राप्त नहीं किया, योगी बनने का पुरुषार्थ नहीं किया | हमने जो कर्म किया, उनका फल हमें ही भोगना पड़ता है, अन्य को नहीं। तृतीय भाग में आपने बारह भावनाओं का वर्णन करते हुए लिखा है-इस दुःख भरे असार संसार में सुख ढूँढ़ना अज्ञान है। सुख कहीं बाहर नहीं है, आत्मा में ही है | इस जीवन की अनित्यता व अशरणता को जानकर हम शीघ्र ही अपना हित कर लेना चाहिय | जीव अकेला है तथा पर-संयोगों से भिन्न है | अज्ञान मोह से परवस्तुओं का यह जीव अपना मानता है, परन्तु जब शरीर ही अपना नहीं है, तो अन्य संयोग अपन कैस हो सकते हैं? इस संसार में "न काई तरा है न मेरा है, जग ता चिड़िया रैनबसेरा है।" शरीर के प्रति आसक्ति कम करते हुये आत्मा का लक्ष्य रखना ही 'अन्यत्व' भावना है। शरीर की अशुचिता तथा आत्मा की परम पवित्रता को जानकर संसार, शरीर व भोगों से विरक्त विरागी और वीतरागी हाना श्रेयष्कर है | आत्मा से भिन्न परपदार्थों पर दृष्टि देने स कर्मी का आस्रव होता है, जो दुःख और संसार का कारण है। आस्रव को रोक देना 'संवर' है। संवर से ही मोक्षमार्ग प्रारंभ होता है। परदृष्टि से कर्म बंधते हैं और स्वभावदृष्टि से कर्म निर्जरित होते हैं। इसलिये, निजस्वभाव में लीन हाना कल्याणकारी है। हे आत्मन्! यदि दुःखों का बोझ ढोते-ढोते थकान आ गई हो तो सर्व पुरुषार्थ पूर्वक निज बोधि प्राप्त करके रत्नत्रय को धारण करो।। पुरुषार्थ सहित जीवन में रत्नत्रय धारो, निज बाधि प्राप्त करके भवसिंधु से तरो ।। न र जन्म सफल करने को धाम धार लो, भवसिंधु में फँसी आत्मा को उबार लो ।।

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