Book Title: Rajasthan ka Jain Sahitya
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Devendraraj Mehta

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Page 14
________________ 5 I जैन तीर्थंकरों ने और विशेषतः भगवान् महावीर ने इस प्रश्न पर बहुत ही गंभीरतापूर्वक चिन्तन किया और निष्कर्ष रूप में कहा- प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक है । वह उत्पाद, व्यय और श्रीव्य युक्त है । द्रव्य में उत्पाद और व्यय से होने वाली भवस्थाओं को पर्याय कहा गया गुण कभी नष्ट नहीं होते और न अपने स्वभाव को बदलते हैं किन्तु पर्यायों के द्वारा अवस्था से अस्थान्तर होते हुए सदैव स्थिर बने रहते हैं । जैसे स्वर्ण द्रव्य है । किसी ने उसके कड़े बनवा लिये और फिर उस कड़े से कंकण बनवा लिए तो यह पर्यायों का बदलना कहा जायेगा पर जो स्वर्णत्व गुण है वह हर अवस्था में स्थायी रूप से विद्यमान रहता है। ऐसी स्थिति में किसी वस्तु की एक प्रवस्था को देखकर उसे ही सत्य मान लेना और उस पर अड़े रहना हठवादिता या दुराग्रह है। एकान्त दृष्टि से किसी वस्तु विशेष का समग्र ज्ञान नहीं किया जा सकता । सापेक्ष दृष्टि से, अपेक्षा विशेष से देखने पर ही उसका सही व संपूर्ण ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। इस दृष्टिकोण के आधार पर भगवान् महावीर ने जीव, जीव, लोक द्रव्य आदि की नित्यता- अनित्यता, द्वैत-अद्वैत, अस्तित्व - नास्तित्व जैसी विकट दार्शनिक पहेलियों को सरलता पूर्वक सुलझाया और समन्वयवाद की आधारभित्ति के रूप में कथन की स्याद्वाद शैली का प्रतिपादन किया । व्यक्ति में इस प्रकार की वैचारिक उदारता का जन्म होता है तब वह अहं, भय, घृणा क्रोध, हिंसा आदि भावों से विरत होकर सरलता, प्रेम, मैत्री, प्रहिंसा और अभय जैसे लोकतिवाही मांगलिक भावों में रमण करने लगता है । उसे विभिन्नता में प्रभिन्नता और अनेकत्व में एकत्त्व के दर्शन होने लगते हैं । महावीर ने स्पष्ट कहा कि प्रत्येक जीव का स्वतन्त्र अस्तित्व है, इसलिये उसकी स्वतन्त्र विचार- चेतना भी है। अतः जैसा तुम सोचते हो एक मात्र वही सत्य नहीं है। दूसरे जो सोचते हैं उसमें भी सत्यांश निहित है। अतः पूर्ण सत्य का साक्षात्कार करने के लिये इतर लोगों के सोचे हुये, अनुभव किये हुए सत्यांशों को भी महत्त्व दो। उन्हें समझो, परखो और उसके आलोक में अपने सत्य का परीक्षण करो। इसमे न केवल तुम्हें उस सत्य का साक्षात्कार होगा वरन् अपनी भूलों के प्रति सुधार करने का अवसर भी मिलेगा । प्रकारान्तर से महावीर का यह चिन्तन जनतान्त्रिक शासन व्यवस्था में स्वस्थ विरोधी पक्ष की श्रावश्यकता और महत्ता प्रतिपादित करता है तथा इस बात की प्रेरणा देता है कि किसी भी तथ्य को भली प्रकार समझने के लिये अपने को विरोध पक्ष की स्थिति में रखकर उस पर चिंतन करो। तब जो सत्य निखरेगा वह निर्मल, निर्विकार और निष्पक्ष होगा । महावीर का यह वैचारिक प्रदार्य और सापेक्ष चितन स्वतन्त्रता का रक्षा कवच है। यह दृष्टिकोण अनेकांत सिद्धांत के रूप में प्रतिपादित है । 2. समानता :- स्वतन्त्रता की अनुभूति वातावरण और अवसर की समानता पर निर्भर है। यदि समाज में जातिगत वैषम्य और आर्थिक असमानता है तो स्वतन्त्रता के प्रदत्त अधिकारों का भी कोई विशेष उपयोग नहीं । इसलिये महावीर ने स्वतन्त्रता पर जितना बल दिया उतना ही बल समानता पर दिया । उन्हें जो विरक्ति हुई वह केवल जीवन की नश्वरता या सांसारिक असारता को देखकर नहीं, वरन् मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण देखकर वे तिलमिला उठे और उस शोषण को मिटाने के लिये, जीवन के हर स्तर पर समता स्थापित करने के लिये उन्होंने क्रांति की, तीर्थं प्रवर्तन किया। एक ओर, भक्त और भगवान के बीच पनपे धर्मं दलालों को अनावश्यक बताकर, भक्त और भगवान के बीच गुणात्मक संबंध जोड़ा । जन्म के स्थान पर कर्म को प्रतिष्ठित कर गरीबों, दलितों और असहायों को उच्च प्राध्यात्मिक स्थिति प्राप्त करने की कला सिखायी। अपने साधना काल में कठोर प्रभिग्रह धारण कर दासी बनी, हथकड़ी और बेड़ियों में जकड़ी, तीन दिन से भूखी, मुण्डितकेश राजकुमारी चंदना से प्रहार ग्रहण कर, उच्च क्षत्रिय राजकुल की महारानियों के मुकाबले समाज में निकृष्ट समझी जाने वाली नारी शक्ति की आध्यात्मिक गरिमा और महिमा प्रतिष्ठापित की। जातिवाद

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