Book Title: Rajasthan ka Jain Sahitya
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Devendraraj Mehta

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Page 12
________________ संक्षेप में कहा जा सकता है कि भारतीय समाज-व्यवस्था में जनतन्त्र केवल राजनैतिक संदर्भ ही नहीं है। यह एक व्यापक जीवन पद्धति है, एक मानसिक दृष्टिकोण है जिसका संबंध जीवन के धार्मिक, नैतिक, मार्थिक, सामाजिक और राजनैतिक सभी पक्षों से है । इस धरातल पर जब हम चिन्तन करते हैं तो मुख्यतः जैन दर्शन में और अधिकांशतः अन्य भारतीय दर्शनों में भी जनतांत्रिक सामाजिक चेतना के निम्न लिखित मख्य तत्त्व रेखांकित किये जा सकते हैं:-- 1. स्वतन्त्रता 2. समानता 3. लोककल्याण 4. सार्वजनीनता 1. स्वतन्त्रता:-स्वतन्त्रता जनतन्त्र की आत्मा है और जैन दर्शन की मूल भित्ति भी। जैन मान्यता के अनुसार जीव अथवा आत्मा स्वतन्त्र अस्तित्व वाला द्रव्य है। अपने अस्तित्व के लिये न तो यह किसी दूसरे द्रव्य पर आश्रित है और न इस पर आश्रित कोई अन्य द्रव्य है। इस दृष्टि से जीव को प्रभु कहा गया है -जिसका अभिप्राय यह है कि जीव स्वयं ही अपने उत्थान या पतन का उत्तरदायी है। सद प्रवत्त आत्मा ही उसका मित्र है और दुष्प्रवृत्त प्रात्मा ही उसका शत्र है। स्वाधीनता और पराधीनता उसके कर्मों के अधीन है। वह अपनी साधना के द्वारा घाति-प्रघाति सभी प्रकार के कर्मों को नष्ट कर पूर्ण मुक्ति प्राप्त कर सकता है। स्वयं परमात्मा बन सकता है। जैन दर्शन में यही जीव का लक्ष्य माना गया है। यहां स्वतन्त्रता के स्थान पर म क्ति शब्द का प्रयोग हया है। इस मक्ति प्राप्ति में जीव की साधना और उसका पुरुषार्थ ही मख्य साधन है। मक्ति-प्राप्ति के लिये स्वयं के आत्म को ही पुरुषार्थ में लगाना होगा। इस प्रकार जीव मात्र की गरिमा, महत्ता और इच्छा शक्ति को जैन दर्शन में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। इसीलिये यहां मक्त जीव अर्थात परमात्मा की गणात्मक एकता के साथ-साथ मात्रात्मक अनेकता है। क्योंकि प्रत्येक जीव ईश्वर के सान्निध्य-सामीप्य-लाभ ही प्राप्त करने का अधिकारी नहीं है, बल्कि स्वयं परमात्मा बनने के लिये क्षमतावान है । फलतः जैन दृष्टि में प्रात्मा ही परमात्मदशा प्राप्त करती है, पर कोई परमात्मा आत्मदशा प्राप्त कर पुनः अवतरित नहीं होता। इस प्रकार व्यक्ति के अस्तित्व के धरातल पर जीव को ईश्वराधीनता और कर्माधीनता दोनों से मक्ति दिलाकर उसकी पूर्ण स्वतन्त्रता की रक्षा की गयी है। कुछ लोगों का कहना है कि महावीर द्वारा प्रतिपादित कर्म सिद्धान्त स्वतन्त्रता का पूरी तौर से अनुभव नहीं कराता। क्योंकि वह एक प्रकार से प्रात्मा को कर्माधीन बना देता है। पर सच बात तो यह है कि महावीर की कर्माधीनता भाग्य द्वारा नियंत्रित न होकर पुरुषार्थ द्वारा संचालित है। महावीर स्पष्ट कहते हैं-'हे प्रात्मन् ! तू स्वयं ही अपना निग्रह कर। ऐसा करने से तु दुखों से मुक्त हो जायेगा।' यह सही है कि प्रात्मा अपने कृत कर्मों को भोगने के लिये बाध्य है पर वह इतनी बाध्य नहीं कि वह उसमें परिवर्तन न ला सके। महावीर की दृष्टि में आत्मा को कर्मबन्ध में जितनी स्वतन्त्रता है, उतनी ही स्वतन्त्रता उसे कर्मफल के भोगने की भी है। आत्मा अपने पूरुषार्थ के बल पर कर्मफल में परिवर्तन ला सकती है। इस संबंध में भगवान महावीर के कर्म-परिवर्तन के निम्नलिखित चार सिद्धान्त विशेष महत्त्वपूर्ण हैं:-- (1) उदीरणा-नियत अवधि से पहले कर्म का उदय में आना। (2) उद्वर्तन-कर्म की अवधि और फल देने की शक्ति में अभिवृद्धि होना।

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