Book Title: Rajasthan ka Jain Sahitya
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Devendraraj Mehta

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Page 11
________________ सांस्कृतिक संगम का कुत्सित और वीभत्स रूप ही सामने आया। संस्कृति का जो निर्मल और लोक कल्याणकारी रूप था वह अब विकारग्रस्त होकर चन्द व्यक्तियों की ही सम्पत्ति बन गया। धर्म के नाम पर क्रियाकाण्ड का प्रचार बढ़ा। यज्ञ के नाम पर मूक पशुओं की बलि दी जाने लगी। अश्वमेध ही नहीं नरमेध भी होने लगे। वर्णाश्रम व्यवस्था में कई विकृतियां प्रा गई। स्त्री और शूद्र अधम तथा निम्न समझे जाने लगे। उनको आत्म-चिन्तन और सामाजिक-प्रतिष्ठा का कोई अधिकार न रहा। त्यागी-तपस्वी समझे जाने वाले लोग अब लाखों-करोड़ों की संपत्ति के मालिक बन बैठे। भोग और ऐश्वर्य किलकारियां मारने लगा। एक प्रकार का सांस्कृतिक संकट उपस्थित हो गया। इससे मानवता को उबारना आवश्यक था। वर्द्धमान महावीर ने संवेदनशील व्यक्ति की भांति इस गंभीर स्थिति का अनशीलन और परीक्षण किया। बारह वर्षों को कठोर साधना के बाद वे मानवता को इस संकट से उबारने के लिये प्रमत ले आये। उन्होंने घोषणा की-'सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। यज्ञ के नाम पर की गई हिंसा अधर्म है। सच्चा यज्ञ प्रात्मा को पवित्र बनाने में है। इसके लिये क्रोध की बलि दीजिये, मान को मारिये, माया को काटिये और लोभ का उन्मलन कीजिये।' महावीर ने प्राणी-मात्र की रक्षा करने का उद्बोधन दिया। धर्म के इस अहिंसामय रूप ने संस्कृति को अत्यन्त तरल और विस्तृत बना दिया। उसे जनरक्षा (मानव समुदाय) तक सीमित न रखकर समस्त प्राणियों की सुरक्षा का भार भी संभलवा दिया। जैन धर्म में जनतांत्रिक सामाजिक चेतना के तत्त्व : यद्यपि यह सही है कि धर्म का मल केन्द्र व्यक्ति होता है क्योंकि धर्म आचरण से प्रकट होता है पर उसका प्रभाव समूह या समाज में प्रतिफलित होता है और इसी परिप्रेक्ष्य में जनतान्त्रिक सामाजिक चेतना के तत्त्वों को पहचाना जा सकता है। कुछ लोगों की यह धारणा है कि जनतान्त्रिक सामाजिक चेतना की अवधारणा पश्चिमी जनतंत्र-यूनान के प्राचीन नगर राज्य और कालान्तर में फ्रांस की राज्य क्रान्ति की देन है। पर सर्वथा ऐसा मानना ठीक नहीं। प्राचीन भारतीय राजतन्त्र व्यवस्था में प्राधुनिक इंगलैण्ड की भांति सीमित व वैधानिक राजतन्त्र से युक्त प्रजातंत्रात्मक शासन के बीज विद्यमान थे। जन सभाओं और विशिष्ट आध्यात्मिक ऋषियों द्वारा राजतन्त्र सीमित था। स्वयं भगवान महावीर लिच्छिवीगण राज्य से संबंधित थे। यह अवश्य है कि पश्चिमी जनतन्त्र और भारतीय जनतन्त्र की विकास प्रक्रिया और उद्देश्यों में अन्तर रहा है, उसे इस प्रकार समझा जा सकता है:-- 1. पश्चिम में स्थानीय शासन की उत्पत्ति केन्द्रीय शक्ति से हुई है जबकि भारत में इसकी उत्पत्ति जन-समदाय की शक्ति से हुई है। 2. पाश्चात्य जनतान्त्रिक राज्य पूंजीवाद, उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के बल पर फले-फूले हैं । वे अपनी स्वतन्त्रता के लिये तो संघर्ष करते हैं पर दूसरे देशों को राजनैतिक दासता का शिकार बना कर उन्हें स्वशासन के अधिकार से वंचित रखने की साजिश करते हैं। पर भारतीय जनतन्त्र का रास्ता इससे भिन्न है। उसने आर्थिक शोषण और राजनैतिक प्रभुत्व के उद्देश्यों से कभी बाहरी देशों पर आक्रमण नहीं किया। उसकी नीति शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व और अन्तरराष्ट्रीय सहयोग की रही है। 3. पश्चिमी देशों ने पूंजीवादी और साम्यवादी दोनों प्रकार के जनतन्त्रों को स्थापित करने में रक्तपात, हत्याकाण्ड और हिंसक क्रान्ति का सहारा लिया है पर भारतीय जनतन्त्र का विकास लोक-शक्ति और सामूहिक चेतना का फल है। अहिंसक प्रतिरोध और सत्याग्रह उसके मूल प्राधार रहे है।

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