Book Title: Punya ki Upadeytaka Prashna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_4_001687.pdf

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Page 3
________________ १२९ यहाँ हम देखते हैं कि नवतत्त्वों की इस सूची में पुण्य और पाप को स्वतन्त्र तत्त्व माना गया, किन्तु कालान्तर में आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र (लगभग ईसा की तीसरी सदी) में इन नवतत्त्वों के स्थान पर सात तत्त्वों का प्रतिपादन किया और पुण्य तथा पाप को स्वतन्त्र न मानकर उन्हें आस्रव का भेद माना । किन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि पुण्य और पाप का न केवल आस्रव होता है अपितु उनका बन्ध और विपाक भी होता है। अतः पुण्य और पाप को मात्र आस्रव नहीं माना जा सकता । वस्तुतः तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वाति की दृष्टि संक्षिप्तीकरण की रही है, क्योंकि वह ग्रन्थ सूत्र रूप में है । यहीं कारण है कि उन्होंने न केवल तत्त्वों के सम्बन्ध में अपितु अन्य सन्दर्भों में भी अपनी सूचियों का संक्षिप्तीकरण किया है, जैसे उत्तराध्ययन और कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में वर्णित चतुर्विध मोक्ष मार्ग के स्थान पर त्रिविध मोक्ष मार्ग का प्रतिपादन करते हुए तप को चारित्र में ही अर्न्तभूत मान लेना, सप्तनय की अवधारणा में समभिरूढनय एवं एवंभूतनय को शब्दनय के अन्तर्गत मानकर मूल में पाँच नयों की अवधारणा को प्रस्तुत करना आदि। इसी क्रम में उन्होंने पुण्य और पाप को भी आस्रव के अन्तर्गत मानकर नव-तत्त्वों के स्थान पर सात तत्त्वों की अवधारणा प्रस्तुत की है। ज्ञातव्य है कि जैन दर्शन के इतिहास में कालक्रम में विभिन्न तात्त्विक अवधारणाओं की सूचियों में कहीं संकोच की तो कहीं विस्तार की प्रवृत्ति दिखलाई देती है। इसकी चर्चा पं० दलसुख भाई मालवणिया ने अपनी लघु पुस्तिका 'जैनदर्शन का आदिकाल ' में की है। जहाँ तक तत्त्वों की अवधारणा का प्रश्न है इस सन्दर्भ में हमें ऐसा लगता है कि तत्त्वों की संख्या सम्बन्धी सूची संकुचित एवं विस्तारित होती रही है । ज्ञातव्य है कि जैन धर्म दर्शन में तत्त्वों को श्रद्धा का विषय माना गया है। तत्त्वार्थसूत्र (१/३) में तो स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि तत्त्व श्रद्धान ही सम्यक् दर्शन है। किन्तु जिन तत्त्वों पर श्रद्धा रखनी चाहिए अर्थात् उनको अस्ति रूप मानना चाहिए नास्ति रूप नहीं, इसकी चर्चा करते हुए सर्वप्रथम सूत्रकृताङ्ग के द्वितीय श्रुत स्कन्ध के पांचवें अध्ययन बत्तीस तत्त्वों की एक विस्तृत सूची दी गई है, जो निम्न है - (१) लोक (२) अलोक (३) जीव (४) अजीव (५) धर्म (६) अधर्म (७) बन्ध (८) मोक्ष ( ९ ) पुण्य (१०) पाप (११) आस्रव (१२) संवर (१३) वेदना (विपाक) (१४) निर्जरा (१५) क्रिया (१६) अक्रिया (१७) क्रोध (१८) मान (१९) माया (२०) लोभ (२१) प्रेम (राग) (२२) द्वेष (२३) चतुरंगसंसार (२४) सिद्धस्थान (२५) देव (२६) देवी (२७) सिद्धि(२८) असिद्धि (२९) साधु (३०) कल्याण और (३२) पाप (अकल्याण) । सूत्रकृताङ्ग (२/५/७६५-७८ ) यहाँ हम देखते हैं कि सोलह युग्मों में बत्तीस तत्त्वों को गिनाया गया है। इन युग्मों में धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य और कल्याण-अकल्याण (पाप) ये तीन युग्म ऐसे हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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