Book Title: Punya ki Upadeytaka Prashna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_4_001687.pdf

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Page 17
________________ १४३ है, उनके मुख्य प्रतिपाद्य बिन्दु निम्न है(१) पुण्यतत्त्व और पुण्यकर्म में अन्तर है। चाहे पुण्य कर्म बन्ध के निमित्त हो, किन्तु पुण्यतत्त्व बन्ध का निमित्त नहीं है। पुण्यकर्म क्रिया या योग रूप है। इससे उसका आस्रव एवं बन्ध सम्भव है, किन्तु पुण्यतत्त्व उपयोग रूप है, शुभ आत्म परिणाम रूप है जो कषाय की मन्दता का परिणाम है। अत: कषाय की मन्दता रूप पुण्य तत्त्व आत्म-विशुद्धि का निमित्त होने से उपादेय है। कषाय की मन्दता और मन्द कषाय में अन्तर है। जहाँ कषाय की मन्दता पुण्य रूप है वहाँ मन्द कषाय भी पाप रूप है। कषाय की मन्दता से शुभपरिणाम होते हैं और उससे पुण्य तत्त्व में अभिवृद्धि होती है, जबकि मन्द कषाय से भी अशुभ परिणाम ही उत्पन्न होते हैं और उनसे पाप तत्त्व की अभिवृद्धि होती है। इस प्रकार कषाय की मन्दता पुण्य का हेतु है, जबकि मन्द कषाय पाप के हेत् हैं। (३) कषाय की मन्दता से हुई पुण्य की अभिवृद्धि आत्म-विशुद्धि का हेतु होने से __ मोक्ष की उपलब्धि में साधक है। अत: पुण्य मोक्ष का साधक होने से उपादेय है, जबकि पाप मोक्ष में बाधक होने से हेय है। (४) पुण्य पाप का प्रक्षालन करता है, अत: पुण्य सोने की बेड़ी न होकर सोने का आभूषण है। बेड़ी बन्धन में डालती है, आभूषण नहीं। बेड़ी बाध्यतावश धारण करनी पड़ती है, जबकि आभूषण स्वेच्छा से धारण किया जाता है। अत: बेड़ी से हम इच्छानुसार मुक्त नहीं हो सकते हैं किन्तु आभूषण से इच्छानुसार मुक्त हो सकते हैं। अत: आभूषण रूप पुण्य के क्षय का कोई उपाय किसी साधना में निर्दिष्ट नहीं है। (५) दया, दान, करुणा, वात्सल्य, सेवा आदि सद्प्रवृत्तियों से बन्ध नहीं होता है। बन्ध तो तभी होता है, जब कर्ता में फलाकांक्षा, निदान कर्तृत्व या भौक्तृत्व रूप कषाय परिणाम हो। संक्षेप में शुभयोग के साथ रहा हुआ कषाय भाव ही उन कर्मों के स्थिति बन्ध का कारण होता है। शुभ योग कर्म बन्ध का कारण नहीं होता है। (६) पुण्य स्वभाव है, स्वभाव का नाश नहीं होता है। पुन: जो स्वभाव होता है, वही धर्म है। पुण्य स्वभाव है अत: वह धर्म है। पुन: स्वभाव का त्याग सम्भव नहीं है, अत: 'पुण्य त्याज्य नहीं हैं। यही कारण है कि तीर्थंकर केवलज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् भी लोककल्याण या प्राणियों के प्रति अनुकम्पा की दृष्टि से ही तीर्थ प्रवर्तन, धर्मोपदेश आदि प्रवृत्ति करते हैं। अत: पुण्य कभी भी त्याज्य नहीं है, वह सदैव ही उपादेय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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