________________ है। वे मात्र विद्वान् नहीं हैं, अपितु साधक भी हैं। उनके द्वारा इस कृति की रचना का प्रयोजन उनके अन्तस् में प्रवाहमान करुणा की अजस्रधारा ही है। उनका प्रतिपाद्य मात्र यही है कि धर्म और आध्यात्मिकता के नाम पर सेवा और करुणा की सद्प्रवृत्तियों का समाज से विलोप न हो। क्योंकि मनुष्य की मनुष्यता इसी में है कि वह दूसरे प्राणियों का रक्षक और उनके सुख-दुःख का सहभागी बने। सन्दर्भ : 1. अभिधानराजेन्द्रकोश, खण्ड 5, पृष्ठ 876. 2. जैनसिद्धान्तबोलसंग्रह, भाग 3, पृष्ठ 182. 3. तत्त्वार्थसूत्र, 6/4. 4. योगशास्त्र, 4/107. 5. स्थानाङ्गटीका, 1.11-12. 6. जैनधर्म, पृष्ठ 84. 7. समयसारनाटक, उत्थानिका 28. 8. भगवतीसूत्र, 7/10/121. 9. स्थानाङ्गसूत्र, 9. 10. भगवद्गीता, 18.17. 11. धम्मपद, 249. 12. सूत्रकृताङ्ग, 2/6/27-42. 13. जैनधर्म, पृष्ठ 160. 14. दर्शन और चिन्तन, खण्ड 2, पृष्ठ 226. 15. अनुयोगद्वारसूत्र, 129. 16. दशवैकालिकसूत्र, 129. 17. सूत्रकृताङ्ग, 2/2/4, पृष्ठ 104. 18. दशवैकालिक, 6/11. 19. कर्मग्रन्थ, प्रथम भाग, भूमिका, पृष्ठ 25-26. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org