Book Title: Punya ki Upadeytaka Prashna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_4_001687.pdf

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Page 16
________________ १४२ महत्ता को कम नहीं आंकना चाहिये। पार होने के लिये उसकी आवश्यकता तो अपरिहार्य रूप से होती है। वैसे ही संसार रूपी समुद्र से पार होने के लिये पुण्य रूपी नौका अपेक्षित है, क्योंकि साधना की पूर्णता मानवीय गुणों की अभिव्यक्ति में है और मानवीय गुणों की अभिव्यक्ति के लिये पुण्य कर्मों का सम्पादन आवश्यक है, अत: पुण्य कर्मों की उपादेयता निर्विवाद है। पुण्य कर्मों को बन्धन रूप मानकर जो उनकी उपेक्षा जाती है वह बन्धन के स्वरूप की सही समझ नहीं होने के कारण है। पुण्य कर्म जब निष्काम भाव से किये जाते हैं तो उनसे बन्धन नहीं होता है। यदि जैन धर्म की शास्त्रीय भाषा में कहें तो उनमें मात्र ईर्यापथिक बन्ध होता है, जो वस्तुत: बन्ध नहीं है। बन्धन जब भी होगा वह राग-द्वेष (कषाय) एवं फलाकांक्षा की सत्ता होने पर ही होगा, उनका अभाव होने पर बन्धन नहीं होगा। जैन कर्म सिद्धान्त का यह शाश्वत नियम है कि किसी भी कर्म का स्थिति बन्ध कषाय का कारण हैं। अत: वीतराग दशा की प्राप्ति पर शुभ कर्म या पुण्य कर्म अकर्म बन जाते हैं, वे बन्धन नहीं करते हैं। अत: त्याज्य ‘कषाय' है न कि 'पुण्य' कर्म। आत्मा की शुद्ध दशा की प्राप्ति अर्थात् शुद्धोपयोग में उपस्थिति कषाय के अभाव में सम्भव है। अत: उसकी प्राप्ति के लिए कषाय का त्याग आवश्यक है, न कि पुण्य प्रवृत्ति का। वस्तुत: जब राग-द्वेष (कषाय) एवं फलाकांक्षा समाप्त हो जाती है तब वह शुभकर्म अकर्म बन जाता है। कषाय चाहे अधिक हो या अल्प, वह त्याज्य है, वह पापरूप ही है क्योंकि वह बन्धन का कारण ही है। कन्हैयालाल जी लोढ़ा का यह कथन शत प्रतिशत सही है कि मन्द कषाय पापरूप है, किन्तु कषाय की मन्दता पुण्य रूप है। कषाय में जितनी मन्दता होगी पुण्यप्रभार उतना ही अधिक होगा। पुण्य प्रवृत्ति जब भी होती हैं, वे कषाय को मन्दता में ही होती है अत: कषाय चाहे वह मन्द ही क्यों न हो, त्याज्य है- किन्तु कषाय की मन्दता उपादेय है, क्योंकि साधक कषाय को मन्द करते-करते अन्त में वीतराग दशा को उपलब्ध हो जाता है और जब वह वीतराग दशा को उपलब्ध हो जाता है तो उसकी स्वाभाविक रूप से नि:सृत होने वाली लोकमंगलकारी पुण्य प्रवृत्तियाँ बन्धन कारक नहीं होती हैं। वे त्याज्य नहीं, अपितु उपादेय ही होती हैं। बन्धन पुण्य प्रवृत्तियों से नहीं होता है, बन्धन तो व्यक्ति की निदान बुद्धि या फलाकांक्षा से होता है अथवा कषाय की उपस्थिति से होता है। गुणस्थान सिद्धान्त के अनुसार भी कर्मबन्ध दसवें गुणस्थान तक ही सम्भव है, क्योंकि दसवें गुणस्थान में संज्वलन लोभ (सूक्ष्म लोभ) की सत्ता है। ग्यारहवें गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक लोकमंगल की प्रवृत्तियों के फलस्वरूप जो द्वि-समय का ईर्यापथिक सातावेदनीय कर्म का बन्ध होता है वस्तुत: वह बन्ध नहीं है। अत: पुण्य रूप सप्रवृत्तियाँ बन्ध रूप नहीं हैं अत: वे हेय नहीं उपादेय हैं। हेय तो कषाय हैं, जो पाप रूप हैं। अपनी कृति में पं० कन्हैयालाल जी लोढ़ा ने पुण्य प्रवृत्तियों की उपादेयता को सप्रमाण सिद्ध किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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