Book Title: Punya ki Upadeytaka Prashna Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_4_001687.pdf View full book textPage 2
________________ १२८ परोपकार के कार्यों के प्रति विधि-निषेध से ऊपर उठकर मध्यस्थ दृष्टि अपनाने के संकेत सूत्रकृताङ्ग जैसे प्राचीन जैनागमों में मिलते हैं। फिर भी सामान्यतया दिगम्बर-श्वेताम्बर मुनिवर्ग प्रेरणा के रूप में और गृहस्थवर्ग यथार्थ में लोक-कल्याणों, समाज-सेवा और परोपकार के कार्यों में रुचि लेता रहा है। चाहे सैद्धान्तिक मान्यता कुछ भी हो, सम्पूर्ण जैन समाज परोपकार और सेवा की इन प्रवृत्तियों में रुचि लेता रहा है। यद्यपि बीसवीं शती के प्रारम्भिक वर्षों में इस प्रश्न को लेकर पक्ष-विपक्ष में कुछ स्वतन्त्र ग्रन्थ भी लिखे गये हैं। सेवा, दान और परोपकार जैसी पुण्य प्रवृत्तियों की उपादेयता के सम्बन्ध में प्रकीर्ण संकेत तो प्राचीनकाल से लेकर वर्तमान युग तक के अनेक ग्रन्थों में मिलते हैं, इस सम्बन्ध में विद्वानों द्वारा कुछ लेख भी लिखे गये हैं। मैने भी स्वहित और लोकहित का प्रश्न, "सकारात्मक अहिंसा' की भूमिका जैसे कुछ लेख लिखे। फिर भी निष्पक्ष दृष्टि से बिना किसी मत या सम्प्रदाय पर टीका टिप्पणी किये मात्र आगमिक और कर्म सिद्धान्त के श्वेताम्बर-दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों के आधार पर उनका गहन अनुशीलन करके अपनी कृति में पुण्य की उपादेयता के सम्बन्ध में पूज्य पं० श्री कन्हैयालाल जी लोढ़ा ने जो निष्कर्ष प्रस्तुत किये वे न केवल प्रामाणिक हैं, अपितु हमें इस प्रश्न पर पुनर्चिन्तन को बाध्य करते हैं। वस्तुत: समस्या क्या है और उसका दार्शनिक समाधान क्या है, इस प्रश्न पर अग्रिम पृष्ठों में कुछ गम्भीर चर्चा करेंगे। जैन तत्त्व-मीमांसा में पाप और पुण्य भारतीय धर्म-दर्शनों में पुण्य और पाप की अवधारणा अति प्राचीन काल से पाई जाती है। इन्हें धर्म-अधर्म, कुशल-अकुशल, शुभ-अशुभ, नैतिक-अनैतिक, कल्याण-पाप आदि विविध नामों से जाना जाता है। जैन धर्म-दर्शन में भी तत्त्वमीमांसा के अन्तर्गत नव तत्त्वों की अवधारणा में पुण्य और पाप का स्वतन्त्र तत्त्व के रूप में उल्लेख हुआ है। हमें न केवल श्वेताम्बर आगमों में, अपित दिगम्बर परम्परा में आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में भी नवतत्वों की यह अवधारणा प्राप्त होती है। इन नवतत्त्वों को नव पदार्थ या नव अर्थ भी कहा है, किन्तु नाम के इस अन्तर से इनकी मूलभूत अवधारणा में कोई अन्तर नहीं पड़ता है। श्वेताम्बर परम्परा में नव तत्त्वों की इस अवधारणा का प्राचीनतम उल्लेख उत्तराध्ययन एवं समवायांग में पाया जाता है। पंचास्तिकायसार नामक ग्रन्थ में इन नव तत्वों का नव पदार्थ के रूप में उल्लेख हुआ है। नवतत्त्वों की इस अवधारणा के अन्तर्गत निम्न नौ तत्त्व माने गए हैं- १. जीव, २. अजीव, ३. पुण्य, ४. पाप, ५. आस्रव, ६. संवर, ७. बन्ध, ८. निर्जरा और ९. मोक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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