Book Title: Punya ki Upadeytaka Prashna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_4_001687.pdf

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Page 8
________________ १३४ ९. नमस्कार पुण्य- गुरुजनों के प्रति आदर प्रकट करने के लिए उनका अभिवादन करना। पुण्य और पाप (शुभ-और अशुभ) की कसौटी शुभाशुभता या पुण्य-पाप के निर्णय के दो आधार हो सकते हैं- १. कर्म का बाह्य स्वाहा अर्थात् समाज पर उसका प्रवाह और २. कर्ता का अभिप्राय। इन दोनों में कौन सा आधार यथार्थ है, यह विवाद का विषय रहा है। गीता और बौद्ध दर्शन में कर्ता के अभिप्राय को ही कृत्यों की शुभाशुभता का सच्चा आधार माना गया है। गीता स्पष्ट रूप से कहती है कि 'जिसमें कर्तृत्व भाव नहीं है, जिसकी बुद्धि निर्लिप्त है, वह कर्त्तव्यभाव से इन सब लोगों मार डाले तो भी यह समझना चाहिए कि उसने न तो किसी को मारा है और न वह उस कर्म से बन्धन को प्राप्त होता है।'१० धम्मपद में बुद्ध-वचन भी ऐसा ही है कि नैष्कर्म्यस्थिति को प्राप्त ब्राह्मण माता-पिता को, दो क्षत्रिय राजाओं को एवं प्रजा सहित राष्ट्र को मारकर भी निष्पाप होकर जाता है। ११ बौद्ध दर्शन में कर्ता के अभिप्राय को ही पुण्य-पाप का आधार माना गया है। इसका प्रमाण सूत्रकृतांगसूत्र के आर्द्रक सम्वाद में भी मिलता है। १२ जहाँ तक जैन मान्यता का प्रश्न है, विद्वानों के अनुसार उसमें भी कर्ता के अभिप्राय को ही कर्म की शुभाशुभता का आधार माना गया है। मुनि सुशीलकुमार जी लिखते हैं कि शुभ-अशुभ कर्म के बन्ध का मुख्य आधार मनोवृत्तियां ही हैं। एक डाक्टर किसी को पीड़ा पहुंचाने के लिए उसका व्रण चीरता है। उससे चाहे रोगी को लाभ ही हो जाये परन्तु डाक्टर तो पाप-कर्म के बन्धन का ही भागी होगा। इसके विपरीत वही डाक्टर करुणा से प्रेरित होकर व्रण चीरता है और कदाचित् उससे रोगी की मृत्यु हो जाती है, तो भी डाक्टर अपनी शुभ-भावना के कारण पुण्य का बन्ध करता है। २३ पण्डित सुखलालजी भी यही कहते हैं, पुण्यबन्ध और पाप-बन्ध की सच्ची कसौटी केवल ऊपरी क्रिया नहीं है, किन्तु उसकी यथार्थ कसौटी कर्ता का आशय ही है। जैन दर्शन के अनुसार जिस व्यक्ति में संसार के सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत् दृष्टि है, वही पुण्य कर्मों का स्रष्टा है। १५ दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि समस्त प्राणियों को जो अपने समान समझता है और जिसका सभी के प्रति समभाव है, वह पाप-कर्म का बन्ध नहीं करता है। १६ सूत्रकृताङ्ग के अनुसार भी धर्म-अधर्म (शुभाशुभत्व) के निर्णय में अपने समान दूसरे को समझना चाहिए। १७ सभी को जीवित रहने की इच्छा है। कोई भी मरना नहीं चाहता। सभी को अपने प्राण प्रिय हैं। सुख अनुकूल है और दुःख प्रतिकूल। इसलिए वही आचरण श्रेष्ठ है, जिसके द्वारा किसी भी प्राणी का हनन नहीं हो।८ कौन सा कर्म बन्धनकारक है और कौन सा कर्म बन्धनकारक नहीं है, इसका निर्णय क्रिया के बाह्य रूप से नहीं वरन् क्रिया के मूल में निहित चेतना की रागात्मकता के आधार पर होगा। पं० सुखलालजी कर्मग्रन्थ की भूमिका में लिखते हैं कि साधारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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