Book Title: Punya ki Upadeytaka Prashna Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_4_001687.pdf View full book textPage 6
________________ १३२ उन्हें अनैतिक कहा जा सकता है। लेकिन नैतिकता के क्षेत्र में आने वाले सभी कर्म भी एकसमान नहीं होते हैं। उनमें से कुछ शुभ और कुछ अशुभ होते हैं। जैन परिभाषा में इन्हें क्रमशः पुण्य-कर्म और पाप कर्म कहा जाता है। इस प्रकार जैन दर्शन के अनुसार कर्म तीन प्रकार के होते हैं -- (१) ईर्यापथिक कर्म (अकर्म) (२) पुण्य-कर्म और (३) पाप कर्म । अशुभ या पाप कर्म जैन आचार्यों ने पाप की यह परिभाषा की है कि वैयक्तिक सन्दर्भ में जो आत्मा को बन्धन में डाले, जिसके कारण आत्मा का पतन हो, जो आत्मा के आनन्द का शोषण करे और आत्मशक्तियों का क्षय करे, वह पाप हैं। सामाजिक सन्दर्भ में जो पर पीड़ा या दूसरों के दुःख का कारण है, वह पाप है ( पापाय परपीडनम् ) । वस्तुतः जिस विचार एवं आचार से अपना और पर का अहित हो और जिससे अनिष्ट फल की प्राप्ति हो, वह पाप है। वे सभी कर्म जो स्वार्थ, घृणा या अज्ञान के कारण दूसरे का अहित करने की दृष्टि से किये जाते हैं, पाप कर्म हैं। इतना ही नहीं सभी प्रकार के दुर्विचार और दुर्भावनाएं भी पाप कर्म हैं। पाप कर्मों का वर्गीकरण जैन दृष्टिकोण जैन दार्शनिकों के अनुसार पाप कर्म १८ प्रकार के हैं१. प्राणातिपात (हिंसा), २. मृषावाद (असत्य भाषण ), ३. अदत्तादान (चौर्यकर्म ), ४. मैथुन (काम-विकार), ५. परिग्रह (ममत्व, मूर्च्छा, तृष्णा या संचयवृत्ति), ६. क्राध ( गुस्सा), ७. मान (अहंकार), ८. माया ( कपट, छल, षड्यन्त्र और कूटनीति), ९. लोभ (संचय या संग्रह की वृत्ति), १०. राग (आसक्ति), ११. द्वेष (घृणा तिरस्कार ईर्ष्या आदि), १२. क्लेश (संघर्ष, कलह, लड़ाई, झगड़ा आदि), १३. अभ्याख्यान ( दोषारोपण ), १४. पिशुनता (चुगली), १५. परपरिवाद (परनिन्दा), १६. रति- अरति ( हर्ष और शोक ), १७. माया - मृषा ( कपट सहित असत्य भाषण ), १८. मिथ्यादर्शनशल्य (अयथार्थ जीवनदृष्टि ) । २ पुण्य (कुशल कर्म) पुण्य वह है जिसके कारण सामाजिक एवं चैतसिक स्तर पर समत्व की स्थापना होती है। मन, शरीर और बाह्य परिवेश में सन्तुलन बनाना यह पुण्य का कार्य है। पुण्य क्या है इसकी व्याख्या में तत्त्वार्थसूत्रकार कहते हैं- शुभास्रव पुण्य है। दूसरे जैनाचार्यों ने उसकी व्याख्या दूसरे प्रकार से की है। आचार्य हेमचन्द्र पुण्य की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि पुण्य अशुभ कर्मों का लाघव है और शुभ कर्मों का उदय है। " इस प्रकार आचार्य हेमचन्द्र की दृष्टि में पुण्य अशुभ (पाप) कर्मों की अल्पता और शुभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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