Book Title: Pudgal Paryavekshan Author(s): Rameshmuni Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf View full book textPage 9
________________ भाव संवर और द्रव्य संवर! जो चेतन का परिणाम कर्म के योग और आश्रव को रोकने में कारण है। वह भाव संवर है। और जो वस्तुतः कर्मों का अवरोध करता है, वह द्रव्य संवर है । भाव संवर कारण है और द्रव्य संवर कार्य है। इसी प्रकार जीव अपनी पूर्वसंयुक्त कार्मण वर्गणाओं को क्रमशः निर्जीण या दूर भी कर सकता है। और यही निर्जरा तत्व है " निर्जरा” शब्द “जू” धातु से निष्पन्न हुआ है। जिसका स्पष्टतः अर्थ होता है - जीर्ण होना, विनष्ट होना। यह शब्द कर्मों के क्रमिक विनाश को इंगित करता है। अतएव एक देश रूप से, आत्मा से कर्मों का छूटना “निर्जरा” है। वह दो प्रकार की है - विपाकज और अविपाकज! जहाँ कर्म पक कर निर्जीर्ण होते हैं वह विपाकज निर्जरा है। और तप आदि से जब कर्मों की निर्जरा की जाती है तो वह अविपाकज निर्जरा है। इसे क्रमशः द्रव्य निर्जरा और भाव निर्जरा भी कहते हैं। बीज फल के रूप में वृद्धिंगत होता है। यदि वह स्वयं पक जाता है। तो वह विपाक कहलाता है। परन्तु यदि उस को अपक्व स्थिति में ही तोड़ लिया जाये और फिर उसे कृत्रिम साधनों के द्वारा पकाया जाये तो वह अविपाक निर्जरा है । आत्मा से कर्म रूपी पुद्गलों का फल देकर नष्ट हो जाना " निर्जरा" है। निर्जरा का प्रमुख साधन “तप” है । वह तप बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से दो प्रकार का है। इन दोनों के छह-छह भेद हैं कुल मिलाकर तप के बारह प्रकार होते हैं। आभ्यन्तर तप की उत्कृष्टता की तुलना में, बाह्य तप की साधना का भी विशेष महत्व है। आभ्यन्तर तप की जिन उर्ध्वगामी तपस्या का फल हमें मोक्ष रूप में मिलने का ज्ञात होता है, उस उत्क्रान्ति का सारा का सारा भार बाह्य तप की सर्वथा सफल साधना पर निर्भर है। यह कथन पूर्णतः यथार्थ है। ३३ अपनी कार्मण-वर्गणाओं से सदा के लिये पूर्ण रूपेण मुक्त हो जाना जीव का मोक्ष कहलाता है। 'मोक्ष' शब्द "मोक्ष असने " धातु से भाव अर्थ में धञ् प्रत्यय होने पर निष्पन्न होता है। जिस का अर्थ होता है - आत्मा से बन्धे हुए समस्त कर्मों को समूलतः फेंक देना! जिन उपायों से मोक्ष यानी कर्मों के बन्धनों से छुटकारा मिलता है, उन प्रयासों की अपेक्षा से करण की प्रधानता की ध्यान में रखते हुए “छुटकारा मात्र को मोक्ष कहा गया है। जब आत्मा आठों प्रकार के कर्मों के मल कलंक से और अपने शरीर से, अपनी आत्मा को अलग कर देता है, तब उस के जो अचिन्तनीय, फिर भी स्वाभाविक ज्ञान आदि गुणों रूप और अव्याबाध सुख रूप सर्वथा विलक्षण जो अवस्था उत्पन्न होती है। उसे मोक्ष कहते हैं । इन ३४ ३३ ३४ Jain Education International क- भगवती सूत्र पू. २५ उद्धे. ७ सू. १८७, २१७ ! ख- उत्तराध्ययन सूत्र अ. ३० गाथा -८, ३०१ ग- स्थानांगसूत्र स्थान ६, सूत्र ५५१ ! घ- मूलाचार-गाथा ३४६, ३६० ! ड- प्रवचन सारोद्धार - २७०-२७२ ! च - औपपातिक सूत्र - ३० ! छ- भगवती आराधना २०८ ज- चारित्र सार १३३! झ- सर्वार्थसिद्धि - ९ / १९ ञ - समवायांग सूत्र, समवाय - ६ अभयदेव वृत्ति ! ख- ज्ञानार्णव ३ / ६-१० ! क- परमात्म प्रकाश - २/१० ! ग- नियम सार, तात्पर्याख्यावृत्ति -४! घ- द्रव्य संग्रह टीका - ३७! ड- सर्वार्थसिद्धि १/१ की उत्थानिका आचार्य पूज्यपाद ! (४२) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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