Book Title: Pudgal Paryavekshan Author(s): Rameshmuni Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf View full book textPage 8
________________ मान, माया और लोभ। २८ संक्षेप में कषाय के दो भेद हैं -राग और द्वेष! उक्त दोनों भेदों को ही भावकर्म माना २९ है। रागात्मक भाव एवं द्वेषात्मक भाव स्वरूप, जिस से ज्ञानावरणादि कर्म बन्धते हैं, वह परिणाम भाव बन्ध है और आत्मा और कर्म के प्रदेशों का परस्पर वस्तुतः मिल जाना द्रव्य बन्ध है। २० आश्रव और बन्ध इन दोनों में कारण कार्य का सम्बन्ध है। आश्रव कर्म बन्ध के लिये भूमिका का निर्माण करता है। बन्ध आश्रव पर निर्भर है। प्रथम क्षण में कर्म स्कन्धों का जो आगमन है, वह तो आश्रव है। और कर्म स्कन्धों के आगमन के बाद, द्वितीय क्षण में उन कर्म स्कन्धों का जीव प्रदेश में स्थित हो जाना बन्ध है। इस भेद से आश्रव और बन्ध इन दोनों की स्थिति, वस्तुतः स्पष्ट हो जाती है। बन्ध तत्व के अन्तर्गत यह ध्यान देने की बात है कि पुद्गल परमाणु अर्थात् कार्मण वर्गणाएँ जीव द्रव्य में प्रविष्ट हो जाते हैं। अन्तर्लीन हो जाते हैं। जीव द्रव्य के साथ कार्मणवर्गणाएँ अपना एक क्षेत्रावगाही सम्बन्ध स्थापित कर लेती है। अर्थात् आकाश के जिस और जितने प्रदेशों में जीव स्थित होता है। अपनी सक्ष्म परिणमन शक्ति के बल पर ठीक उन्हीं और उतने ही प्रदेशों में उस से सम्बन्धित कार्मण-वर्गणाएँ भी अवस्थित हो जाया करती हैं। इस स्थिति अर्थात् एक क्षेत्रावगाही सम्बन्ध का यह तात्पर्य कदापि नहीं है कि वे दोनों एक दूसरे में परिवर्तित हो जाते हैं। इस सम्बन्ध के रहते हुए भी जीव, जीव ही रहता है और पुद्गल पुद्गल ही रहता है। दोनों द्रव्य अपने-अपने मौलिक गुणों का एक समय के लिये भी किंचित् मात्र भी नहीं छोड़ते हैं। .. जीव अपने ही पुरुषार्थ से निरन्तर संयुक्त होती रहने वाली कार्मण-वर्गणाओं पर रोक लगा सकता है। और यही रोक संवरतत्व कहलाती है। ३१ संवर का कार्य है कर्मों का संयमन करना। यह आश्रव का विरोधी है। दूसरे शब्दों में संवर कर्मों के आश्रव को रोक लेता है। यह दो प्रकार का है ३२ २८- क- सूत्रकृतांग सूत्र- ६/२६! ख- स्थानांग सूत्र- ४/१/२५१! ग- प्रज्ञापना सूत्र-२३/१/२८०! क- उत्तराध्ययन सूत्र- ३२/७ ख- समय सार- ए ४/ए ६/१० ए/१७७! ग- प्रवचन सार- १/८४/८८! क- द्रव्य संग्रह- ३२! ख- प्रवचन सार-८३-८४! ग- सर्वार्थसिद्धि- १, ४! क- उत्तराध्ययन सूत्र अ. रए गा. ११! ख- सप्तत्तत्त्व प्रकरणम् ११८ -११२! ग- योगशास्त्र -७६! क- स्थानांग सूत्र, टीका २/१४! ख- द्रव्य संग्रह -२/३४! ग- सर्वर्थसिद्धि -९/१! घ- सप्ततत्त्व प्रकरणम् -११२ ङ- पंचास्तिकाय -२/४२! अमृतचन्द्रवृत्ति! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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