Book Title: Pravachan Saroddhar Ek Adhyayan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_5_001688.pdf View full book textPage 9
________________ १२८ सम्बन्धी पाँच और अनधिकारी को वन्दन करने सम्बन्धी पाँच स्थान और प्रतिषेध सम्बन्धी पाँच स्थान बताये हैं। इसी क्रम में अवग्रह सम्बन्धी एक, अभिधान सम्बन्धी पाँच, उदाहरण सम्बन्धी पाँच, आशातना सम्बन्धी तेंतीस, वन्दन दोष सम्बन्धी बतीस एवं कारण सम्बन्धी आठ ऐसे कुल १९२ स्थानों का उल्लेख है। इस चर्चा में मुखवस्त्रिका के द्वारा काय अर्थात् शरीर के किन-किन भागों का कैसे प्रमार्जन करना चाहिए इसका विस्तृत एवं रोचक विवरण है। इसी क्रम में गुरुवन्दन करते समय खमासना के पाठ का किस प्रकार से उच्चारण करना तथा उस समय कैसी क्रिया करनी चाहिए इसका भी इस द्वार में निर्देश है। वन्दन के अनधिकारी के रूप में - १. पार्श्वस्थ २. अवसन्न ३. कुशील ४. संसक्त और ५, यथाछन्द ऐसे पाँच प्रकार के श्रमणों का न केवल उल्लेख किया गया है, अपितु उनके स्वरूप का भी विस्तृत विवरण दिया गया है। इसी क्रम में शीतलक, क्षुल्लक, श्रीकृष्ण, सेवक और पालक के दृष्टान्त भी दिये गये हैं। अन्त में तेंतीस, आशातनाओं और वन्दन सम्बन्धी बत्तीस दोषों एवं वन्दना के आठ कारण का विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है। इस प्रकार प्रथम एवं द्वितीय द्वार लगभग १०० गाथाओं में सम्पूर्ण होते हैं। प्रवचनसारोद्वार के तीसरे द्वार में देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण की विधि तथा इनके अन्तर्गत किये जाने वाले कायोत्सर्ग एवं क्षामणकों (खमासना) की विधि का विवेचन किया गया है। इसमें यह भी बताया गया है कि दैवसिक-प्रतिक्रमण में चार, रात्रिक प्रतिक्रमण में दो, पाक्षिक में बारह, चातुर्मासिक में बीस और सांवत्सरिक में चालीस लोगस्स का ध्यान करना चाहिए। पुन: इसी प्रसंग में इनकी श्लोक संख्या एवं श्वासोश्वास की संख्या का भी वर्णन किया गया है। इस दृष्टि से दैवसिक प्रतिक्रमण में १००, रात्रिक में ५०, पाक्षिक में ३००, चातुर्मासिक में ५०० और वार्षिक में १००० श्वासोश्वास का ध्यान करना चाहिए। इसी क्रम में आगे क्षामणकों (गुरु से क्षमायाचना सम्बन्धी पाठ) की संख्या का भी विचार किया गया है। चतुर्थ प्रत्याख्यान द्वार में सर्वप्रथम निम्न दस प्रत्याख्यानों की चर्चा है१. भविष्य सम्बन्धी २. अतीत सम्बन्धी ३. कोटि सहित ४. नियन्त्रित ५. साकार ६. अनाकार ७. परिमाण व्रत ८. निरवशेष ९. सांकेतिक और १०. काल सम्बन्धी प्रत्याख्यान। सांकेतिक प्रत्याख्यान में दृष्टि, मुष्ठि, ग्रन्थी आदि जिन आधारों पर सांकेतिक प्रत्याख्यान किये जाते हैं उनकी चर्चा है। इसी क्रम में आगे समय सम्बन्धी दस प्रत्याख्यानों की चर्चा की गई है इसमें नवकारसी, अर्द्ध-पौरुषी, पौरुषी आदि के प्रत्याख्यानों की चर्चा है। इसी क्रम में दस विकृतियों (विगयों) की, बत्तीस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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