Book Title: Pravachan Saroddhar Ek Adhyayan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_5_001688.pdf

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Page 11
________________ १३० पन्द्रहवां द्वार जिनों के गणधरों की समग्र संख्या का विवेचन करता है। इसी क्रम में आगे सोलहवें-द्वार में मुनियों की संख्या का, सत्रहवें -द्वार में साध्वियों की संख्या का, अठारहवें-द्वार में जिनों के वैक्रिय लब्धिधारक मनियों की संख्या का, उन्नीसवें-द्वार में वादियों की संख्या का, बीसवें-द्वार में अवधि ज्ञानियों की संख्या का, इक्कीसवें-द्वार में केवल ज्ञानियों की संख्या का, बावीसवें द्वार में मनः पर्यवज्ञानियों की संख्या का, तेवीसवें- द्वार में चतुर्दश पूर्वो के धारकों की संख्या का, चौबीसवेंद्वार में जिनों के श्रावकों की संख्या का और पच्चीसवें-द्वार में श्राविकाओं की संख्या का निर्देश हुआ है। इसी क्रम में छब्बीसवां-द्वार तीर्थंकरों के शासन-सहायक यक्षों के नाम का उल्लेख करता है तो सत्ताइसवां द्वार यक्षणियों के नामों को सूचित करता है। प्रवचनसारोद्धार का अठावीसवां द्वार तीर्थंकरों के शरीर के परिमाण (लम्बाई) का निर्देश करता है तो उनतीसवां द्वार प्रत्येक तीर्थंकरों के विशिष्ट लांछन की चर्चा करता है। तीसवें-द्वार में तीर्थंकरों के वर्ण अर्थात् शरीर के रंग की चर्चा की गई है। इकतीसवां-द्वार किस तीर्थंकर के साथ कितने व्यक्तियों ने मुनिधर्म स्वीकार किया उनकी संख्या का निर्देश करता है। बत्तीसवां-द्वार तीर्थंकरों की आयु का निर्देश करता है। तेतीसवें-द्वार में प्रत्येक तीर्थंकरों ने कितने मुनियों के साथ निर्वाण प्राप्त किया, इसका उल्लेख है तो चौतीसवां-द्वार किस तीर्थंकर ने किस स्थान पर निर्वाण प्राप्त किया, इसका उल्लेख करता हैं । "पैंतीसवां-द्वार' तीर्थंकरों एवं अन्य शलाकापुरुषों के मध्य कितने-कितने काल का अन्तराल रहा है, इसका विवेचन प्रस्तुत करता है जबकि छत्तीसवें द्वार में इस बात की चर्चा है कि किस तीर्थंकर का तीर्थ या शासन कितने काल तक चला और बीच में कितने काल का अन्तराल रहा। इसप्रकार हम देखते हैं कि सातवें द्वार से लेकर छत्तीसवें द्वार तक उन्तीस द्वारों में मुख्यत: तीर्थंकरों से सम्बन्धित विभिन्न तथ्यों का निर्देश किया गया है। ‘सैंतीसवें द्वार' से लेकर 'सन्तानवे -द्वार तक इकसठ द्वारों में पुन: जैन सिद्धान्त और आचार सम्बन्धी विवेचन प्रस्तुत किये गये हैं। यद्यपि बीच में कहींकहीं तीर्थंकरों के तप आदि का भी निर्देश है। सैंतीसवें द्वार में दस आशातनाओं का उल्लेख है तो अड़तीसवें द्वार में चौरासी आशातनाओं का उल्लेख है। इसी चर्चा के प्रसंग में इस द्वार में मुनिचैत्य में कितने समय तक रह सकता है इसकी चर्चा भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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