Book Title: Pravachan Saroddhar Ek Adhyayan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_5_001688.pdf

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Page 22
________________ १४१ विवेचन है। १९४ - द्वार में भवनपति आदि देवों की कायस्थिति, १९५ वें में उनके भवनादि का स्वरूप, १९६ वें द्वार में इन देवों के शरीर की लम्बाई आदि और १९७ वे द्वार में विभिन्न देवों में पाई जाने वाली द्रव्य लेश्या का विवेचन है। इसी क्रम में १९८ वें द्वार में देवों के अवधिज्ञान के स्वरूप का और १.९९ वें द्वार में देवों की उत्पत्ति में होने वाले विरहकाल का विवेचन है। . २०० वें द्वार में देवों की उपपात के विरहकाल का और २०१ वें द्वार में देवों के उपपात की संख्या का विवेचन किया गया है। २०२ और २०३ वें द्वारों में क्रमश: देवों की गति और आगति का विवेचन है। २०४ वां द्वार सिद्ध गति में जाने वाले जीवों के बीच जो अन्तराल अर्थात् विरहकाल होता है उसका विवेचन करता है। २०५ वें द्वार में जीवों के आहारादि स्वरूप का विवेचन है। २०६ वें द्वार में तीन सौ त्रेसठ पाखंडी मतों का विस्तृत विवेचन किया गया है। २०७ वें द्वार में प्रमाद के आठ भेदों का विवेचन है। - २०८ वें द्वार में बारह चक्रवर्तियों का, २०९ ३ द्वार में नौ बलदेवों का, २१० वें द्वार में नौ वासुदेवों का और २११ वें द्वार में नौ प्रतिवासुदेवों का संक्षिप्त विवेचन उपलब्ध होता है। २१२ वें द्वार में चक्रवर्ती, वासुदेव आदि के क्रमश: चौदह और सात रत्नों का विवेचन है। २१३ वें द्वार में चक्रवर्ती, वासुदेव आदि की नव निधियों का विवेचन किया गया है। २१४ वां द्वार विभिन्न योनियों में जन्म लेने वाले जीवों की संख्या आदि का विवेचन करता है। २१५ वें द्वार से लेकर २२० वें द्वार तक छः द्वारों में जैन कर्म सिद्धान्त का विवेचन उपलब्ध होता है। इनमें क्रमश: आठ मूल प्रकृतियों, एक सौ अट्ठावन उत्तर प्रकृतियों, उनके बन्ध आदि के स्वरूप तथा उनकी स्थिति का विवेचन किया गया है। अन्तिम दो द्वारों में क्रमशः बयालीस पुण्य प्रकृतियों का और बयासी पाप प्रकृतियों का विवेचन है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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